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शोध प्रबन्ध का सार:
वादिराजसूरि कृत पार्श्वनाथचरित का समीक्षात्मक
अध्ययन
-डॉ. जयकुमार जैन
संस्कृत साहित्य का विशाल भाण्डार प्राचीन काल के तीन प्रमुख सम्प्रदायों-वैदिक, जैन और बौद्ध के मनीषियों की सेवा से समृद्ध हुआ है। इसलिए भारतीय संस्कृति के वास्तविक मूल्याङ्कन के लिए तीनों धाराओं से समाहृत साहित्य का विवेचन अपरिहार्य है। एक विशिष्ट भारतीय सम्प्रदाय के रूप में जैनों ने संस्कृत की महत्त्वपूर्ण सेवा की है, इस विषय में सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् डॉ० एस० विन्टरनित्ज़ ने जो लिखा है, वह स्मरणीय है
"I was not able to do justice to the literary achievements of the Jainas. But I hope to have shown that the Jainas have contributed their full share to the religious, ethical and scientific literature of ancient India."2
विद्वान समीक्षक की इस उक्ति से स्पष्ट है कि संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में जनों की देन का पूर्णांग आकलन करना आवश्यक है और यह कार्य आज तक वांछित रूप में नहीं हुआ है । ईसा की द्वितीय शताब्दी से लेकर जैन कवि निरन्तर काव्य-सर्जना में संलग्न हैं। किन्तु हम देखते हैं कि पाश्चात्य विद्वान् वेबर, मेक्डॉनल तथा कीथ आदि ने अपने संस्कृत साहित्य के इतिहासों में इनका नाममात्र का उल्लेख किया है, जबकि वास्तविकता यह है कि संस्कृत साहित्य में जैनों की देन का और भी अधिक महत्त्व है, क्योंकि ये कवि पाली की परम्परा के वाहक बौद्धों की तरह प्राकृत की परम्परा को साथ लेकर संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में प्रविष्ट हुए हैं । फलतः इनके अध्ययन से संस्कृत भाषा की व्यापकता, प्रयोग प्रचु. रता, भावगरिमा एवं आलंकारिक सिद्धान्तों की नई परीक्षा संभव है।
साम्प्रदायिक भेदबुद्धि के कारण संस्कृत साहित्य का एक विशाल अंश अब तक उपेक्षित पड़ा है, जिसमें से वादिराजसूरि कृत पार्श्वनाथचरित अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । भारत
___ 1. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा पी-एच० डी० (संस्कृत) उपाधि हेतु स्वीकृत शोध-प्रबन्ध ।
2. The Jainas' in 'The History of Sanskrit Literature', p. 15
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तुलसी प्रज्ञा
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