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कथन में पुष्टता उत्पन्न करने के लिए कवियों द्वारा पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार की प्रयोग द्रष्टव्य है । भक्त्यात्मक भावना में पुनरुक्ति कथन से ही शोभा की प्राप्ति हुई है । यही कारण है कि इन कवियों की हिन्दी काव्यकृतियों में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का प्रयोग पन्द्रहवीं शती से ही परिलक्षित होता है । काव्य में संगीत और लयता के सफल संचरण की दृष्टि से इस अलंकार का प्रयोग सर्वथा उल्लेखनीय रहा है । इस दृष्टि से कविवर बृन्दावनदास विरचित पूजा - काव्य रूप में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार के शुभ दर्शन होते हैं । "
काव्य के उभय पक्ष - शब्द और अर्थ में उत्कर्ष उत्पन्न करने का श्रेय मूलतः श्लेष अलंकार के व्यवहार पर निर्भर करता है । हिन्दी की जैन काव्यकृतियों में श्लेष अलंकार का सफल व्यवहार दृष्टव्य है । कविवर भगवतीदास के परमात्म शतक में 'तारे' और 'धन' शब्दों में श्लेष का चमत्कार उल्लेखनीय है 19
अपनी बात को परमोत्कृष्ट प्रमाणित करने के लिए इन कवियों को व्यतिरेक अलंकार की आवश्यकता हुई । इसी उद्देश्य से प्रभावित होकर इन कवियों द्वारा रचित काव्य में व्यतिरेक अलंकार का व्यवहार दृष्टव्य है । कविवर विनरोदीलाल ने नाभिनन्दन की वन्दना करते हुए व्यतिरेक अलंकार के सफल व्यवहार से अपनी भक्त्यात्मक भावना अभिव्यक्त की है, जिसमें करोड़ों रविकिरणों तथा कामदेव हीन से प्रतीत हो उठे हैं 110
इन कवियों ने अन्य अनेक अलंकारों की भांति सन्देह अलंकार का भी आरम्भ से ही प्रयोग किया है । सत्रहवीं शती के रूपचन्द्र जी द्वारा पद साहित्य में सन्देह अलंकार का प्रयोग आदर्श की स्थापना करता है । 11
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8. झनन झनन झनन झननं, सुरत तहां तननं तननं । घनन घननं घनघंट बजे, दुमदं दुमदं मिरदंग सजे ॥
- भगवान वर्द्धमान जिन पूजा, बृन्दावनदास
9. वीतराग कीन्हों कहा ? को चन्दा की सैन | धाम द्वार को रहत है, तारे सुन सिखर्बन ॥
-- परमात्म शतक, भैय्या भगवतीदास ।
10. जाके चरणारविन्द पूजित सुरिन्द इन्द देवन के वृन्द चन्द शोभा अतिभारी है । जाके नखपर रवि कोटिन किरनवारे मुख देखे कामदेव शोभा छवि हारी है ।। जाकी देह उत्तम है दर्पन सी देखियन अपनो सरूप भवसात की विचारी है । कहत विनोदीलाल मनवचन तिहूंकाल ऐसे नाभिनन्दन कूं बन्दना हमारी है ॥ - चतुर्विंशति जिन स्तवन, विनोदीलाल
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11. किधों जीव वधू कियो किधों, हम बोल्यो मृषा नीति विचारी । किधों पर द्रव्य हरो तृष्णावस किधों परमनर तरु निहारी ।। कधों बहुत आरम्भ परिग्रह कह जू हमरि दृष्टि पसारी । किधों जुवा मधु मांस रम्यो, किधों वित्त-बघू चित्तधारी ॥
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- पद संग्रह, कवि रूपचन्द्र ।
तुलसी प्रज्ञा
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