Book Title: Tulsi Prajna 1978 10
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 43
________________ अलंकार के वस्तुतः रत्नाकर कहे जाते हैं ।" आपके काव्य में व्यवहृत दृष्टान्त अलंकार अन्यतम गुण रहा है, लोक बोध और उसके साथ अर्थ की स्पष्टता । कविवर बुचराज, ज्ञान भूषण, कविवर बुधजन, द्यानतराय आदि कवियों द्वारा दृष्टान्त अलंकार का सफल प्रयोग द्रष्टव्य है । उपमा अलंकार का प्रयोग आरम्भ से ही हुआ है, किन्तु उसका व्यवस्थित रूप हमें सोलहवीं शती में परिलक्षित होता है । कविवर ज्ञानभूषण द्वारा पूर्ण तथा लुप्तोपमा के प्रसंग में आदर्श की स्थापना हुई है । सत्रहवीं शती के बनारसीदास, अठारहवीं के भैय्या भगवतीदास, मेरुनन्दन उपाध्याय, जिनहर्ष, ध्यानतराय विनोदीलाल तथा बुधजन के द्वारा उपमा अलंकार का सुन्दर प्रयोग हुआ है । कवि ने यौवन धन के धर्म (क्षणभंगुरता ) को नवीन उपमान करतल नीर का जिमि वाचक के साथ पूर्णोपमा का सुन्दर प्रयोग किया है । " जैन कवियों की हिन्दी कविता में रूपक अलंकार का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । यह उनका प्रिय अलंकार माना जाता है । कविवर सधारु, मेरुनन्दन, जयसागर बनारसीदास, भूरदास, तथा विनोदी नाल सांगरूपक अलंकार के प्रयोग में उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त कविवर जिनदास, शुभचन्द्र कुमुदचन्द्र द्यानतराय, भागचन्द्र आदि कवियों द्वारा रूपक अलंकार के काव्य में सफल प्रयोग हुए हैं । 7 4. वहीं, पृष्ठ 206, डा० प्रचंडिया, 5. जैसे निसिवासर कमल रहें पंक ही में, पंकज कहावे पैन वार्क ढिग पंक है । जैसे मंत्र वादी विषधर सों मंत्र की सकति वाकै बिना जैसे जीभ गहै चिकनाई रहे पानी में कनक जैसे काई सौ अटंक है । तैसे ज्ञानवंत नाना भांति करतूति ठाने, किरिया को भिन्न मान यातें निकलंक है || - समयसार नाटक, बनारसीदास । 6. आहे आयु कमल दल सम, चंचल चपल शरीर । यौवन धन इव अथिर करम जिमि करतल नीर ॥ खण्ड ४, अंक ३-४ गहावे गात, विष डंक है । रूखो अंग, 7. साची तो गंगा यह वीतराग वानी । अविच्छन्न धारा निज धर्म की कहानी || जाते अति ही विमल अगाध ज्ञान - पानी । जहां नहीं संशयादि- पंक निशानी । सप्तभांग जहं तरंग उछलत सुखदानी । संतचित्त मरालवन्द रमे नित्य ज्ञानी ॥ Jain Education International — आदीश्वर फागु, भट्टारक ज्ञानभूषण — पद, राग, चर्चरी, भागचन्द्र For Private & Personal Use Only २२७ www.jainelibrary.org

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