Book Title: Tulsi Prajna 1978 10
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 52
________________ वर्ष से भी पहले की स्थिति का चित्र उपस्थित होता है। समाज के परिपार्श्व में यह विवेचन अविस्मरणीय है। सप्तम अध्याय : पूर्ववर्ती कवियों का प्रभाव पूर्ववर्ती साहित्य का सभी कवियों पर प्रभाव पड़ना आवश्यंभावी है, क्योंकि कवि अपने पूर्वकवियों की कृतियों का गम्भीर अध्ययन करता है । सम्पूर्ण संस्कृतवाङमय में पद्यबंध में कविकुलगुरु कालिदास, भारवि, माध और जैनकवि हरिचन्द्र तथा गद्यकाव्यनिबन्ध में बाणभट्ट का महत्त्वपूर्ण एवं सर्वातिशायी स्थान है । वादिराजकृत पार्श्वनाथचरित में कालिदास के रघुवंश, कुमारसंभव, ऋतुसंहार, और मेघदूत, भारवि के किरातार्जुनीय, माघ के शिशुपालबध, हरिचन्द्र के धर्मश भ्यवय तथा बाणभट्ट की कादम्बरी का शाब्दिक, आर्थिक या भावात्मक अनुकरण दृष्टिगोचर होता है। किन्तु पार्श्वनाथचरित में पूर्वकाव्यों की परम्परा के निर्वाह के साथ ही वादिराज ने अपनी नवनवोन्मेषशालिनी मनीषा से उसमें मौलिक अनुभूतियों के समावेश के द्वारा नवीन स्वरूप प्रदान कर दिया है। पार्श्वनाथचरित के इस शोधात्मक अध्ययन के आधार पर हम अनायास इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि भारत की साहित्य-साधना संस्कृत को आधार बनाकर सभी सम्प्रदायों के संकीर्ण बंधन को पार कर गई थी। भारत की सार्वभौम भाषा के रूप में संस्कृत की प्रतिष्ठा में वैदिक, बौद्ध आदि सम्प्रदायों के साथ-साथ जैन सम्प्रदाय ने भी सहयोग किया और एक समृद्ध एवं ऐश्वर्यशाली साहित्यिक परम्परा का निर्माण किया । वादिराज निःसंशय मध्ययुगीन भारत के संस्कृत साहित्य के अग्रगण्य प्रतिभू रहे हैं और उनकी कृतियों ने संस्कृतसाहित्य के भाण्डार को नवीन आदर्श और नई भावराशियों का स्मरणीय उपहार दिया है। महाराष्ट्र के सन्त नामदेव थे। मां ने आदेश दिया कि जंगल से पलास की डाली काट कर लाओ। नामदेव ने रास्ते में सोचा कि सन्त कहते हैं कि बनस्पति में भी जीव होते हैं । मेरे दर्द होगा तो इनके भी दर्द होगा। मैं परीक्षण तो करू। उसने अपने पैर पर कुल्हाड़ी चला दी। धोती खून से लथपथ हो गई। दर्द होने लगा। बिना डाली काटे घर लौटे। माँ को कहा कि मैंने परीक्षण किया था । जब मेरे दर्द होता है तो मैं औरों के दर्द कैसे कर सकता हूं? हवा के झौंके से तालाब की शैवाल कुछ हटी। कछुए ने देखा कि बाहर तारे टिमटिमा रहे हैं, चांद चमक रहा है, वृक्ष लहरा रहे हैं, ठण्डी हवा चल रही है। कछुआ खो गया, इस नई दुनिया में । आज तक बह उस तालाब को ही दुनिया माने हुए था। उसने सोचा कि कितना अच्छा हो, मैं अपने कुटुम्ब को यह नई दुनिया दिखाऊं। वह परिवरा को साने गया, तब तक हवा के झोंके से शैवाल पुन: छा गई। सबने उसे झूठा माना। ठीक इसी प्रकार आत्मा मोह के चक्र में इस भांति फंसी है कि उसे इस भौतिक संसार के बाहर कुछ दिखाई नहीं देता। तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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