Book Title: Tulsi Prajna 1978 10
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 18
________________ जैन न्याय में अनुमान और तर्क का स्वरूप प्रा० उदयचन्द्र जन पृष्ठभूमि: ___ जैनागम में प्रमाण के दो भेद बतलाये गये हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष के तीन भेद हैं—अवधि, मन:पर्यय और केवल । परोक्ष के दो भेद हैं-मति और श्रुत । जैनागम में प्रमाण पद्धति की यही प्राचीन परम्परा है। किन्तु यहाँ पर विचारणीय है कि उक्त प्रकार के भेदों में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान का कहीं समावेश किया गया है या नहीं। हम देखते हैं कि सूत्रकार आचार्य उमास्वाति ने उनके पहले प्रचलित प्रमाणविषयक आगमिक परम्परा में कुछ विकास करके दर्शन के क्षेत्र में तार्किक प्रमाणपद्धति को स्थापित किया है । उन्होंने उस समय में प्रचलित स्मृति, संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान), चिन्ता (तर्क) और अभिनिबोध (अनुमान) प्रमाणों का अन्तर्भाव मतिज्ञान में किया है। इसके बाद अकलंकदेव ने इस परम्परा में कुछ और विकास किया। जैनागम में इन्द्रियजन्य ज्ञान को परोक्ष माना गया है, जबकि अन्य दार्शनिकों ने इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष माना है । अकलंकदेव के सामने इन दोनों में सामञ्जस्य स्थापित करने की समस्या थी। उन्होंने इस समस्या का समाधान बहुत ही सुन्दर रीति से किया। उन्होंने प्रत्यक्ष के मुख्य प्रत्यक्ष और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ये दो भेद करके इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होने वाले मतिज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहकर प्रत्यक्ष में सम्मिलित कर लिया। ऐसा करने से प्राचीन परम्परा की रक्षा भी हो गयी और अन्य दार्शनिकों द्वारा अभिमत प्रत्यक्ष की परिभाषा के अनुसार लोकव्यवहार की दृष्टि से सामञ्जस्य भी हो गया । अकलंकदेव ने पुन: सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के दो भेद किये-इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष । उन्होंने मतिज्ञान को इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा तथा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान इन चार ज्ञानों को अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष बतलाया। प्रत्यक्ष की आगमिक परिभाषा के स्थान में दार्शनिक परिभाषा करने की भी 1. मति स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् ।-तत्त्वार्थसूत्र 1/13 2. इन्द्रियार्थज्ञानमवग्रहहावायधारणात्मकम् । अनिन्द्रिय प्रत्यक्षं स्मृतिसंज्ञाचिन्ताऽभिनिबोधात्मकम् । -लघीयस्त्रयवृत्ति, का० 61 २०२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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