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सिद्ध है उसकी सिद्धि व्यर्थ है । यहाँ असिद्ध से तात्पर्यं संदिग्ध, विपर्यस्त तथा अव्युत्पन्न वस्तु से है । अर्थात् साध्य ऐसी वस्तु होती है जिसके विषय में संदेह हो, विपर्यय हो और अनध्यवसाय हो । इष्ट और अबाधित की तरह साध्य को अबाधित भी होना चाहिए । अर्थात् उसमें प्रत्यक्षादि किसी प्रमाण से बाधा नहीं आनी चाहिए । अकलंकदेव ने न्यायfafarer में और आचार्य विद्यानन्द ने तस्वार्थ श्लोकवार्तिक में उक्त प्रकार का ही साध्य का लक्षण बतलाया है । यथार्थ में माणिक्यनन्दि ने अकलंक देव के न्यायशास्त्र का मन्थन करके ही परीक्षामुख की रचना की और उन्हीं के वचनों का अनुसरण करके साध्य आदि का लक्षण लिखा ।
अनुमान के भेद -
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जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा में अनुमान के दो भेद पाये जाते हैंस्वार्थानुमान और परार्थानुमान ।
स्वार्थानुमान तथा परार्थानुमान का लक्षण |
स्वार्थ शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार से होती है— स्वस्मै इवं स्वार्थम् । अर्थात् जो अपने लिए होता है वह स्वार्थ है । स्वार्थानुमान में व्यक्ति परोपदेश के बिना स्वयं ही साधन से साध्य का ज्ञान करता है। इसी विषय में कहा गया है
परोपदेशाभावेऽपि साधनात् साध्यबोधनम् । स्वार्थमनुमानं तदुच्यते ॥
यद्दृष्टु
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परार्थं शब्द की व्युत्पत्ति यह है – परस्मै इदं परार्थम् । पर के लिए साधन से साध्य का जो ज्ञान होता है वह परार्थानुमान है । परार्थानुमान में परोपदेश की या वचनों की आवश्यकता होती है । परीक्षामुख में परार्थानुमान का लक्षण निम्न प्रकार बतलाया गया है ।
परार्थं तु तदर्थपरामशिवचनाज्जातम्' ।
उस स्वार्थानुमान के विषयभूत अर्थं का परामर्श करने वाले वचनों से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे परार्थानुमान कहते हैं । ऐसा भी कहा जाता है कि स्वार्थानुमान ज्ञाना1. सदिग्धविपर्यस्ता व्युत्पन्नानां साध्यत्वं यथा स्यादित्यसिद्धपदम् । - परीक्षामुख, 3 / 21 2. साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्ध ततोऽपरम् ।
साध्याभासं विरुद्धादिसाधना विषयत्वतः ॥ न्यायविनिश्चय, 2/3, पृ० 8-12 साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धमुदाहृतम् । - तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक,
खण्ड 3, श्लोक 122, पृ० 269
3. अकलङ्कवचोऽम्भोधेरुद्द येन धीमता । न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ॥
4. परीक्षामुख, 3/55
खण्ड ४, अंक ३-४
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प्रमेय रत्नमाला, मंगलाचरण श्लोक संख्या 2
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