Book Title: Tulsi Prajna 1978 10
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 22
________________ त्मक होता है और परार्थानुमान वचनात्मक होता है । यथार्थ में बात यह है कि परार्थानुमान का कारण होने से परार्थानुमान के प्रतिपादक वचनों को भी परार्थानुमान कह दिया जाता है । वास्तव में अचेतन होने से वचन अनुमान नहीं हो सकते हैं। क्योंकि अनुमान ज्ञान रूप होता है । अत: 'अन्नं वै प्राणाः' की तरह कारण में कार्य का उपचार करके परार्थानुमान के प्रतिपादक वचनों को परार्थानुमान कह दिया जाता है । अन्यत्र परार्थानुमान के विषय में कहा गया है— स्वार्थ और परार्थ शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार भी की जाती है - स्वस्मादिदं स्वार्थम् । परस्मादिदं परार्थम् । येन स्वयं प्रतिपद्यते तत्स्वार्थम् । येन परं प्रतिपादयति तत्परार्थम् । स्वयं अपने से जो अनुभव होता है, वह स्वार्थानुमान है और पर से जो अनुमान होता है, वह परार्थानुमान है । अर्थात् जिसके द्वारा व्यक्ति स्वयं साध्य का ज्ञान प्राप्त करता है, वह स्वार्थानुमान है और जिसके द्वारा वह दूसरे के लिए साध्य का प्रतिपादन करता है, वह परार्थानुमान है । परोपदेशसापेक्षं साधनात् साध्यवदनम् । श्रोतुर्यज्जायते सा हि परार्थानुमितिर्मता ॥ अनुमान के अंग या अवयव स्वार्थानुमान के तीन अंग होते हैं- धर्मी, साध्य और साधन । अथवा पक्ष और हेतु इस प्रकार दो अंग भी होते हैं । जहाँ साध्य सिद्ध किया जाता है उसे धर्मी कहते हैं । जैसे पर्वत में अग्नि को सिद्ध करते समय पर्वत धर्मी होता है । धर्मी को पक्ष भी कहते हैं । यथार्थ में साध्यविशिष्ट धर्मी का नाम पक्ष है । इसलिये परार्थानुमान के तीन अंग या दो अंग कहने में विवक्षाभेद ही है, अर्थभेद नहीं । स्वार्थानुमान की तरह परार्थानुमान के भी दो अंग होते हैं - प्रतिज्ञा और हेतु । पक्ष के वचन को प्रतिज्ञा कहते हैं । जैसे 'पर्यंत अग्निवाला है' यह कथन प्रतिज्ञा है । साधन के वचन को हेतु कहते हैं । जैसे 'धूमवान् होने से ' ऐसा कहना हेतु है । यहाँ यह स्मरणीय है कि नैयायिक परार्थानुमान के पाँच अवयव मानते हैं - प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन । व्याप्तिपूर्वक दृष्टान्त के वचन को उदाहरण कहते हैं -- यथा जहाँ धूम है वहाँ अग्नि हैं, जैसे भोजनशाला अथवा जहाँ अग्नि नहीं है वहाँ धूम नहीं है, जैसे तालाब । दृष्टान्त की अपेक्षा से पक्ष में हेतु के उपसंहार के वचन को उपनय कहते हैं, जैसे भोजनशाला की तरह पर्वत भी घूमवाला है । हेतुपूर्वक पक्ष के निगमन कहते हैं- जैसे धूमवाला होने से पर्वत अग्निवाला है । इस प्रकार न्याय परार्थानुमान के पाँच अवयव माने गये हैं । 1. न्याय बिन्दु, पृ० 21 २०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only वचन को दर्शन में तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org

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