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क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव से किंचित् मात्र भी पुण्य का बंध नहीं होता, उदय भाव से कर्म का नाश नहीं होता, इसीलिए शुभ लेश्या में चार भाव पाये जाते हैं ।
शुभ भाव लेश्या ने धर्म लेश्या कही, तिण सूं खायक खयोपशम भाव । धर्म लेस्या सू कर्म कटे छे, निर्जरा कही इण न्याव ॥28॥
शुभ भाव लेश्याओं को इसलिए धर्म लेश्या कहा है कि वे क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव हैं । धर्मं लेश्या से कर्मों का क्षय होता है, इस अपेक्षा से निर्जरा कहा गया है ।
शुभ भाव लेश्या नें कर्म लेश्या कही, तिण सूं उदै भाव कहिवाय । कर्म लेश्या सू कर्म बंधे छै, इण कारण आश्रव मांय || 29||
शुभ भाव लेश्याओं को कर्म लेश्या कहा है, अत: वे औदयिक भाव कहलाती हैं । कर्म लेश्या से कर्मों का बंध होता है, अतः वे आश्रव के अन्तर्गत हैं ।
अनुजोग द्वारे उदे भाव में, छहूं लेश्या कही ताम । उत्तराध्ययने शुभ लेश्या नें, कर्म लेश्या कही स्वाम ||30||
अरिहंत प्रभु ने अनुयोगद्वार सूत्र में छहों लेश्याओं को औदयिक भाव कहा है और उत्तराध्ययन सूत्र में शुभ लेश्याओं को कर्म लेश्या कहा है ।
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प्रथम ढाल उगणीस द्वादश, सुद पांचम वैशाख ।
भिक्खू भारीमाल ऋषिराय प्रतापे, जय जश हरष सुभाष ||31||
यह प्रथम ढाल सं. 1912 वैसाख शुक्ला 5 के दिन बनाई गई है । भिक्षु, भारीमाल एवं ऋषिराय के प्रताप से जय जश ( जयाचार्य) के हर्ष की अभिव्यक्ति हो रही है ।
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(ब्रह्मचर्य, अहिंसा, क्षमा, शौच, तप, दम, संतोष, सत्य और अस्तेय ये नौ व्रत है । यदि इनमें से एक व्रत भी टूटता है तो नौ के नौ व्रत टूट जाते हैं 1 )
- पद्मपुराण
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ब्रह्मचर्यमहिंसा च क्षमाशौचतपोदमः । संतोष: सत्यमस्तेयं, व्रतानि तु विशेषतः ॥
एकेन व्रतहीनेन, व्रतमस्य तु लुप्यते ॥
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तुलसी प्रज्ञा
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