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जैन हिन्दी कवियों की अलंकार-योजना
डा. महेन्द्र सागर प्रचंडिया
अभिव्यक्ति के प्रमुख उपकरणों में अलंकार-योजना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन कवियों की हिन्दी-काव्य-कृतियों से अलंकारों का व्यवहार सहजरूप में हुआ है। हिन्दी जैन काव्य-कृतियों में अलंकार-व्यवहार की स्थिति निम्न प्रकार रही है । यथा
1. साधारण रूप में अलंकार व्यवहार 2. प्रचुरतापूर्वक अलंकार व्यवहार 3. वस्तु विश्लेषण के अनुसार अलंकार व्यवहार
कवि को जहाँ वस्तु का याथातथ्य वर्णन करना अभीष्ट रहा है, वहां अलंकारों का व्यवहार साधारण रूप में हुआ है। ऐसी स्थिति में समतामूलक अलंकारों को ही गृहीत किया गया है । मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य-कृतियों में विविध अलंकार के दर्शन सहज में हो जाते हैं। इन प्रयोगों में कवि-ज्ञान प्रमाणित करने के उद्देश्य से अलंकारों की भरती नहीं हुई है अपितु काव्य-शास्त्रीय मर्यादानुमोदित अलंकारों को गृहीत किया गया है। वस्तु विश्लेषण के अनुसार अलंकारों का व्यवहार कवि की दूरदर्शिता का परिचायक रहा है। केवयिता अपने कथन को जनसाधारण तक पहुंचाने के लिए यदि अमुक अमुक अलंकारों के प्रयोग आवश्यक अनुभव करता है तो तत्कालीन व्यवहृत उपमानों को यथास्थान गृहीत किया गया है।
मूलतः जैन कवि, मुनि, आचार्य, भट्टारक तथा ब्रह्मचर्यजन रहे हैं । गृह-वासी जैन कवियों की संख्या अधिक नहीं रही किन्तु ऐसे लोग जैन धर्म के विद्वान् तथा शास्त्र-स्वाध्यायी अवश्य रहे हैं । हिन्दी कवियों की भांति उन्हें कोई राज्याश्रय नहीं मिला और नहीं किसी श्रेष्ठि अथवा ठिकानाश्रित उनका पोषण ही हुआ। जो राज्याश्रय में रहे भी हैं उन्होंने धर्म प्रचार तथा जन कल्याण के अतिरिक्त अन्य विनोद परक काव्य सृजन नहीं किया। ऐसे कविगण अधिकांशतः आचार्य, मुनि संघों तथा भट्टारकों के संघटन के अन्तर्गत ही रहे हैं। आचार्य मुनि भट्टारक तथा ब्रह्मचारी गण प्रायः पद-यात्री होते थे और वे लोग वर्षा-वास में चार-पांच महीने एक सुसम्पन्न स्थान पर प्रवास करते जहाँ उनके द्वारा शान्तिपूर्वक देखासमझा गया तथ्य तथा सत्य काव्य में अभिव्यंजित किया जाता।
दूसरे प्रकार के वे कविगण हैं जिनका सारस्वत जीवन शैली-संगठन द्वारा परिपोषित होता रहा। मध्यकाल में जैन कवियों की एक विश्रुत शैली का उल्लेख मिलता है जिसे
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तुलसी प्रज्ञा
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