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रूप फल में तर्क ही साधकतम होता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि तर्क के द्वारा ही रूप व्याप्ति का ग्रहण होता है । धूम और वह्नि में व्याप्ति है । क्योंकि वह्नि के होने पर ही धूम होता है और वह्नि के अभाव में कभी नहीं होता है । वह्नि गम्य है और धूम गमक है। व्याप्ति का ही दूसरा नाम अविनाभाव है। अविनाभाव का अर्थ है-साध्य के बिना साधन का सद्भाव न होना । इस व्याप्ति का ग्रहण तर्क के अतिरिक्त अन्य किसी प्रमाण से नहीं हो सकता है।
कुछ लोग प्रत्यक्ष से ही व्याप्ति का ग्रहण मानते हैं । उनका ऐसा मानना ठीक नहीं है। क्योंकि प्रत्यक्ष निकटवर्ती वर्तमान पदार्थ को ही विषय करता है । वह सर्वदेशावच्छे देन और सर्वकालावच्छेदेन व्याप्ति का ग्रहण नहीं कर सकता है । अनुमान प्रमाण से भी व्याप्ति का ग्रहण नहीं हो सकता है। यहां दो विकल्प होते हैं- प्रकृत अनुमान से व्याप्ति का ग्रहण होगा या अन्य अनुमान से । प्रथम पक्ष में अन्योन्याश्रय दोष आता है । व्याप्ति का ग्रहण होने पर ही प्रकृत अनुमान होगा और प्रकृत अनुमान होने पर ही व्याप्ति ग्रहण होगा यहाँ दोनों ही एक दूसरे पर निर्भर होने से अन्योन्याश्रित हैं । अन्य अनुमान से व्याप्ति का ग्रहण मानने पर उस अनुमान में भी अन्य अनुमान से व्याप्ति ग्रहण होगा। इस प्रकार इस प्रक्रिया का कहीं अन्त नहीं होगा और अनवस्था नामक दोष की प्राप्ति होगी। अतः साध्य-साधन में जो अविनाभाव या व्याप्ति है उसका ग्रहण तर्क से ही होता है, अन्य किसी प्रमाण से नहीं।
किसी ज्ञान के प्रमाण होने की कसौटी यह है कि वह अपने विषय में अविसंवादी हो। हम देखते हैं कि तर्क भी अपने विषय में अविसंवादी है । अतः प्रत्यक्षादि की तरह वह भी प्रमाण है । यदि तक में अविसंवादकता न हो तो अनुमान में भी वह नहीं हो सकती है। तब अनुमान भी प्रमाण कैसे होगा । प्रमाणों का अनुग्राहक होने के कारण भी तर्क प्रमाण है। प्रमाणों के अनुग्राहक होने का तात्पर्य यह है कि एक प्रमाण से प्रतिपन्न अर्थ का दूसरे प्रमाण से वैसा ही निश्चय करना । यतः प्रत्यक्षादि प्रमाणों से देशत: ज्ञात साध्य-साधन सम्बन्ध का तर्क के द्वारा साकल्येन दृढ़तर ज्ञान होता है, अतः प्रमाणों का अनुग्राहक होने के कारण तर्क प्रमाण है । इसी विषय में आचार्य विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोकवातिक में विशद प्रकाश डाला है -तथाहि
तर्कस्याविसंवादोऽनुमासंवारनादपि । विसंवादेहि तर्कस्य जाततन्नोपपद्यते ।। " तर्कसंवादसन्देहे निःशंकानुमितिक्वते । तदभावे न चाध्यक्षं ततो नेष्ट व्यवस्थितिः ।। प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यां सम्बन्धो देशतो गतः । साध्यसाधनयोस्तांत सामस्त्येनेति चिन्तितम् ॥ प्रमाणविषयस्यायं साधको न पुनः स्वयम् । प्रमाणं तर्क इत्येतत् कस्यचित् व्याहतंमतम् । 1. साध्यसाधनसम्बन्ध्यज्ञाननिवृत्तिरूपे हि फले साधकतमस्तकः ।
-श्लोक वार्तिकभाष्य, 11131115 2. स च तर्कस्तां व्याप्तिं सकलदेशकालोपसंहारेण विषयी करोति । सर्वोपसंहारवती हि व्याप्तिः । प्रत्यक्षस्य सन्निहित देश एव धूमाग्निसम्बन्धप्रकाशनान्न व्याप्तिप्रकाशकत्वम् ।-न्यायदीपिका, 15, 16, पृ० 62,63
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तुलसी प्रज्ञा
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