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मगन ईसरजी मुनि साझ में, सुगुरु-दृष्टि शुरू शुरू में जमें । चरण में थिर चित्त भणो पढो, गण-गणी अनुकूल पण बढो ॥
( मगन चरित्र, ढा. 1 गा० 90 पृ० 17 ) कालूगणी दीक्षा लेते ही कुछ समय तक प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण आदि आपके पास करते । फिर सं० 1947 में मघवागणी ने मगनलाल जी स्वामी का साझ करवाया तब कालू गणी की 'पांती' उनके साझ में कराई ।
सैंतालीस जद पांती हुती सुहाती,
तिण दिन स्यूं रह्या मगन - कालू बण साथी । मुनि पन्नालाल और चौथा जयचन्दजी,
8. मुनि श्री ईशर जी प्रायः आचार्यों की सेवा में रहे । सं० 1938 में उनका जयाचार्य की सेवा में रहने का 'जय सुजश' ढा० 61 गा० 12 में उल्लेख है ।
सं० 1939 तथा 1943 से 46 तक मघवागणी के साथ रहे तथा वहां इन वर्षों में 1221 किये। ऐसा मघवा गणि रचित चातुर्मासिक तप विवरण ढालों में है ।
उपवास 181
च्यारू इक साझे रह्या सुगुरु दिलरंजी | ( मगन चरित्र, ढा. 1 गा० 99 पृ० 19 )
माणकगणी के स्वर्गवास के समय सुजानगढ़ में 14 साधुओं में आप थे । इसका माणक महिमा ढाल 18 दोहा 2 में उल्लेख है ।
इस प्रकार वे कालूगणी तक आचार्यों की सेवा में रहे एवं कृपा पात्र बने । हस्तलिखित चातुर्मास तालिका में उनके अग्रणी रूप में अन्तिम दो चातुर्मास 1978 और 1979 के सुजानगढ़ मिलते हैं ।
9. उन्होंने अन्तिम समय में आजीवन तिविहार अनशन ग्रहण किया । जो बीसवें दिन पश्चिम रात्रि में सानन्द सम्पन्न हुआ । उनकी भावना बड़ी निर्मल और उत्तरोत्तर बढ़ती रही ।
सं० 1979 सावन कृष्णा 1 को सुजानगढ़ वे समाधि मरण प्राप्त हुए ।
( ख्यात)
ख्यात तथा शासन प्रभाकर, जय संत वर्णन गाथा 261 से 263 में भी आपके सम्बन्ध का उपर्युक्त कुछ वर्णन है ।
खण्ड ४, अंक ३-४
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