Book Title: Tulsi Prajna 1978 10
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 13
________________ भी बीदासर के चोरड़िया परिवार में हुआ । उनकी पत्नी का नाम चांदांजी था । बीदासर में आने के पश्चात् साधु-साध्वियों की संगति से उनको सत्य धर्म की प्राप्ति हुई और उत्तरोतर धार्मिक भावना बढ़ती गई। उनकी पत्नी दीक्षा के लिए तैयार हुई तब उन्होंने दूसरी शादी करने का त्याग होते हुए भी बड़े हर्ष से आज्ञा प्रदान की और दीक्षोत्सव पर एक हजार रुपये खर्च किये। उनकी नानीजी गुमाना बाई ने भी बारह सौ रुपये लगाये । इस प्रकार उनकी पत्नी साध्वी श्री चांदांजी (387) * ने उनको छोड़कर 16 वर्ष की अवस्था में सं० 1926 कार्तिक कृष्णा 1 को जयाचार्य के हाथ से बीदासर में संयम ग्रहण किया । * [ स्वामी जी से लेकर अद्यावधि दीक्षित समस्त साधु-साध्वियों की सूची रहती है, उसी संख्या क्रम का सूचक अंक यहां दिया गया है । अतः सर्वत्र साधु-साध्वियों के नाम के आगे दी गई क्रम संख्या को उक्त प्रकार समझना चाहिये। साधु और साध्वियों की सूची पृथक पृथक है ।] ईसर पुत्र डागा अमरचन्दनो, बीकानेर थेट में वास । बीदासर नानाणारा जोग स्यूं, कियो वास धर्म लह्यो खास । (जय सुजश, ढा. 56 गा० 5 ) जाति डागा ईसरदास जी कांई, तास त्रिया गुणवान । नाम चांदां बीदासर तणा, वय सोलह वर्ष उनमान || छति ऋध पति छोड़ नें, थया चरण लेण परिणाम | त्रिया दूजी त्याग परणवा, पति आग्या दी हर्ष मन ताम । कियो मोछव पति हर्ष सू, नानी गुमानां बाई नाम | रुपइया बारे से आसरे, खरच्या सूत्रादिक मोछव काम । घणे हगाम दिक्षा ग्रही जी, चांदांजो धर चूप । कार्तिक दिन पड़वा दिने, घर सीख अमि रस कूप ।। (जय सुजश, ढा. 53 गा० 7 से 10 ) कुछ वर्ष बाद अपने छोटे भाई का ब्याह करने के पश्चात् जयाचार्य के उपदेश से वे स्वयं दीक्षा के लिए तैयार हो गये । और सं० 1930 फाल्गुन कृष्णा 1 को उन्होंने मुखाराम जी ( 241 ) के साथ जयाचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की । वो माह सुद सप्तम नो तिहां स्वा०, मर्याद मोछव श्रीकार हो । डागा ईसरदास ने तब कियो स्वा०, चारू चरण लेवानें त्यार हो ॥ वर्ष छाइस त्रिया चांदा भणी सजनजी, पछे लघु बन्धव फागण कृष्ण एकम बहु वलि भियानी नां मुखराम खन्ड ४, अंक ३,४ Jain Education International देवाय चरण सुविचार हो । परणाय ने स०, हिवे हुवो चरण लेवा त्यार हो ॥ मोच्छव स०, ईसरदास भणी शहर बार हो । नै स०, बिहुँ नें चरण देकियो विहार हो । (जय सुजश, ढा. 56 गा० 4,6,7 ) For Private & Personal Use Only १६७ www.jainelibrary.org

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