Book Title: Tattvopnishad Author(s): Kalyanbodhisuri Publisher: Jinshasan Aradhak Trust View full book textPage 7
________________ -तत्त्वोपनिषद्तत्त्वोपनिषद् के भीतर मे.... महाकवि कालिदास ने कहा है - 'पुराणमित्येव न साधु सर्वम्' प्राचीन होना यही सुंदरता या यथार्थता का कारण नहीं है। श्रीसिद्धसेन दिवाकरजी की इस कृति में यही बात अत्यन्त गम्भीरता से सोची गइ है। यह केवल विचार मात्र नहीं, इस छोटीसी कृति में सारे विश्व को एक सही राह दिखाने की एवं अनेक अनेक गलतफेमी दूर करने की एक अद्भुत शक्ति भरी हुइ है। यदि पक्षपातमुक्त हो कर मध्यस्थता से इसका अभ्यास किया जाये, तो इस अद्भुत शक्ति का अवश्य अनुभव होगा। बत्तीस श्लोक का यह सङग्रह है, जिसे द्वात्रिंशिका कहते है। दिवाकरजी की वर्तमान में बाइस द्वात्रिंशिका प्राप्त होती हैं, जिनमें यह छठ्ठी द्वात्रिंशिका है। इस पर संस्कृत एवं हिन्दी वार्तिक की१ रचना हुई है, जिसका नाम है तत्त्वोपनिषद्। यदि मैं ऐसा कहू कि दिवाकरजी के गम्भीर आशयों को प्रगट करने के लिये मैने यह रचना कि है, तो यह मेरा दुःसाहस ही होगा, कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तैली ! फिर भी यह महान कृति प्रकाश में आये और सारे विश्व पर इससे उपकार हो, इस भावना से इस कृति के तात्पर्य को पाने का एक प्रयत्न जरूर किया है। सम्भव है कि दिवाकरजी का तात्पर्य और गम्भीर हो, मगर सूत्र के अनेक अर्थ होते हैं, उनमें से एक अर्थ यह भी है इतना तो अवश्य कह सकता हूँ। फिर भी मंदबुद्धिता आदि हेतु से इस वार्तिक में क्षति होना असम्भवित नहीं है, मेरी विद्वानों से नम्र प्रार्थना है कि, मेरी क्षतिओं का संशोधन करें। १. टीका निरन्तरव्याख्या - यह टीका नही, वार्त्तिक है - उक्तानुक्तदुरुक्तार्थचिन्ताकारि तु वार्तिकम्। जो कहे हुए, नही कहे हुए एवं मुश्किल से कह सके ऐसी बातों पर विमर्श करता है, उसे वार्त्तिक कहते है।Page Navigation
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