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-तत्त्वोपनिषद्न हि प्राचीनत्वं प्रामाण्यबीजम्। अपरीक्षणमात्मघात इति वक्ष्यति। ततश्च परीक्षितरम्यगौरव एव बुधत्वम्।।२।।
को नामात्र विचारः ? का च तद्विरहे क्षतिः ? इत्यत्राह - न खल्विदं सर्वमचिन्त्यदारुणं,
विभाव्यते निम्नजलस्थलान्तरम्। अचिन्त्यमेतत् त्वभिगृह्य चिन्तयेमेरा जन्म नहीं हुआ है, चाहे (मेरे) दुश्मनों का उद्भव हो जाये।।२।।
प्राचीन पुरुषों ने जो व्यवस्था बताइ है, जिन विचारों को निश्चय के रूपमें पेश किया है, उस विचारों पर ही यदि परिचिन्तन किया जाय, तो क्या उनकी व्यवस्था सिद्ध हो पाएगी ? यह सत्य है कि मरा हुआ इन्सान गौरव का पात्र होता है और वह जितना प्राचीन हो , उसका गौरव उतना ही ज्यादा होता है। मगर ऐसे गौरव से मैं परीक्षा किये बिना ही 'हा जी हा' करु इस लिये मेरा जन्म नहीं हुआ है। मैने यहाँ जो प्रश्न किया उसका जवाब मैं स्पष्टतया नकारात्मक देता हूँ। चाहे मेरे इस जवाब से मेरे अनेक दुश्मन क्यूँ न हो जाए।
आगे चलकर दिवाकरजी बतलायेंगे कि प्राचीन होना वही प्रामाण्य का हेतु नही है। और विचार या परीक्षा किये बिना ही प्राचीन का स्वीकार करना यह एक प्रकार का आत्मघात ही है। इस लिए परीक्षा करने के बाद जो खयाल अविरुद्ध सिद्ध होते है उन्हें ही स्वीकारने में बुद्धिमत्ता है।।२।।
इन खयाल के विषय में विचार ही क्यूँ करे? यदि विचार ना करे तो क्या नुकशान है? इसका जवाब देते हुए दिवाकरजी कहते है -
अन्य रीति से विचार की आवश्यकता दिखलाते है -
सचमुच, यह सर्व अविचारणीय एवं भयंकर है, इस तरह निम्न जलवाले अन्य स्थल का विचार नहीं किया जाता है। जो आग्रह के साथ ऐसा सोचे कि यह अविचारणीय है, तो अन्य काल में उसे शोक के