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- तत्त्वोपनिषद्
उदाराशयमित्यर्थः। न यत्र मत्सरादि, विवादः, प्रसह्यकरणम्, कस्यचिन्मर्मद्योतनं वा। न हि जगति सर्वथैव किमप्यसत्यम्, इति परोक्ते सत्यत्वप्रयोजकमन्वेष्य तद्वचनसमाधानं यत्र, न तु खण्डनैकवृत्तिता, तत् खलु विशालशासनम्। तत्र तु सर्वनयसमन्वयः, सर्वजीवजीवनस्वातन्त्र्यम्। मानसपीडाया अपि परिहारः, सूक्ष्मतमाहिंसार्थमखिलविश्वसूक्ष्मतमजीवस्पष्टनिरूपणम्। न यत्र स्वकीयपरकीयेत्यादिक्षुद्रता, अत एवैकोऽपि जीवो न तत्कारुण्यविषयापवादः । तदिदं विशालं शासनम्।
न खलु तादृशजगद्धितैकान्तविशालशासनप्रणेताऽसर्वज्ञो भवितुमर्हः । ततश्च सर्वदर्शनसिद्धान्ताध्ययनेन तत्स्मृतिस्थापनेन सूक्ष्मदृशान्वेषणेन च
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विस्तीर्ण है, उदार है, बड़ा दिलवाला है। यहा इर्ष्या और मत्सर की भावना नही, यहा विवाद - झगड़े की प्रेरणा नही । यहाँ किसी के मर्म का उद्घाटन नहीं होता। यहाँ तो सबके अभिप्राय को सन्मान देने की वृत्ति है। कोइ न कोइ दृष्टि से तो हर कोई व्यक्ति सच होती है। उसी दृष्टि से उसका अभिप्राय समजने की कोशिश की जाती है। किसी की बात को तोड़ा नही जाता। किसी को मानसिक भी दुःख न हो इसका विशेष रूपसे खयाल रखा जाता है। सूक्ष्म जन्तु का भी जहाँ जीवनस्वातन्त्र्य है, मानसिक पीडा का भी जहाँ स्पष्ट निषेध है, ऐसी अहिंसा के पालन के लिये इस विराट विश्व के हर किसी किसम के जीव का यहाँ सूक्ष्म से सूक्ष्म निरूपण किया गया है। जिस शासन में यह पराया है ऐसी क्षुद्रता नही। जिस शासन की करुणा के विषय में विश्व का एक भी जीव बाकी न हो..... यह है विशाल शासन। ऐसे कल्याणकारी विशाल शासन का प्ररूपक सर्वज्ञ के सिवाँ और कौन हो सकता है ?
बस, हमे सभी दर्शनों का गहरा अभ्यास करना है, सभी सिद्धान्तों के सार को हमारी स्मृति में धारण करना है और सूक्ष्म दृष्टि से