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-तत्त्वोपनिषद् परीक्ष्यमेषां त्वनिविष्टचेतसा,
परीक्ष्यमित्यर्थरुचिर्न वञ्च्यते।।२४।। यथा मदभिमताप्तवचनं मम मदभिप्रायेण विनिश्चितं तथा परेषामपि स्वाभिमताप्तवचनमिति नात्र वाच्यम्। सिद्धे साधनवैयर्थ्यात्।
अपि त्वनभिनिविष्टमनसा रागादिपरिहारेण पक्षपातविमुक्तमध्यस्थहृदयेनैषां सर्वेषामाप्ताभिमतानां वचनं परीक्ष्यम्, युक्तिभिर्विचारणीयमिति ममाशयः। ननु किम्प्रयोजनोऽयं महान् यत्न इत्याह यतो परीक्ष्यम्, तत एव स्वीकार्यमित्येतदर्थे यस्याभिरुचिः, स न वञ्ज्यते, स असदध्वगमनायासेन फलविरहेणानर्थसम्पादनेन च वञ्चितो न भवतीति हृदयम्।।२४।।
तादृशरुचिविकलानामभ्युपगमापोहबीजं पक्षपातमात्रमित्याह - रुचिवाला वञ्चित नहीं होता है।।२४।।
जिस तरह मुझे मेरे दर्शन के प्ररूपक का वचन ज्ञात है, उसका अभ्यास करके उसका ज्ञान मैंने विशेषरूप से निश्चित किया है, उसी तरह अन्य जनों ने भी अपने अपने आप्तपुरुष के सिद्धान्तों को जाना है। उसकी मैं बात नहीं कर रहा हूँ। इस विषय में कहने की आवश्यकता भी नहीं है। मेरा निवेदन तो यही है की अपने दर्शनसहित सभी दर्शन का माध्यस्थतापूर्वक पक्षपातरहित युक्तिओं से परीक्षात्मक अध्ययन हो।
यदि कोइ प्रश्न करे कि 'इतना यत्न क्यूँ किया जा रहा है?' तो उत्तर है कि 'मुझे परीक्षा करके ही स्वीकार करना है' इस हेतु जिसे अभिरुचि है, वह कभी प्रतारित नहीं होता है = अस्थान या गलत रास्ते में प्रयास नही होता, उसे फल का विरह नही होता और अनर्थ की प्राप्ति नही होती।।२४।। __ जिन्हें परीक्षा करने की रुचि नही होती वे स्वपक्षस्वीकार और परपक्ष का अपलाप करते है। यह करने का कारण सिर्फ पक्षपात ही
१. ख- ०तसां।