________________
- तत्त्वोपनिषद् -
जाड्यं-अज्ञानं भंस्यते यथा न पुनरेति तथापनेष्यति, पाटवं - पटोश्चण्डस्य भावः, तमपि भंस्यते, शेषकषायोपलक्षणमिदम्, ततश्च सर्वज्ञतावीतरागद्वेषताप्रदानेनासावस्माकं स्वपदप्रदाता सर्वदुःखविमोचकोऽनन्तानुपमैकान्तिकात्यन्तिकशिवसौख्यप्रदश्चेति ।
आप्तवदिति सर्वथा कृतकृत्ये सिद्धे ज्ञानसन्धानादि - क्रियाऽसम्भवात्, अभिधेययथार्थज्ञान-तदनुरूपाभिधानलक्षणाप्तलक्षणस्य वर्तमानापेक्षयाऽभिधत्त इत्यंशेऽघटनात्, तथापि तत्प्रभावतस्तत्सम्भवात्, भूतापेक्षया चाभिधानक्रियाघटनात् शुद्धनयाभिप्रायेणोपचारानाश्रयेणाप्त इत्यस्य स्थान आप्तवदित्युदितम्। व्यवहाराश्रयेण तु आप्त इत्येव सम्यगिति ध्येयम् ||३२||
७०
यहाँ 'आप्तवत्' पद का अर्थ है, सर्वथा कृतकृत्य हो कर सिद्धिगति में सदा के लिये स्थिर ऐसे वर्द्धमान जिन ऐसी क्रिया साक्षात् तो नहीं करते, अभिधेय – ज्ञेय वस्तु को जो यथार्थ जाने और ज्ञान के अनुरूप ही निरूपण करे ऐसी आप्त की वार्तमानिक व्याख्या भी उनमें मुख्य रूप से लागु नहीं होती । वर्तमान में तो भगवान महावीर सर्वथा कृतकृत्य है, अतः प्रतिपादन करने की क्रिया भगवान महावीर में अतीतकाल की अपेक्षा से ही संगत हो सकती है, किंतु आज भी उनके वचन यथार्थता से उनकी सर्वज्ञता का परिचय दे रहे है, और उनके ही प्रभाव से ज्ञानप्रकाशादि क्रिया भी होती ही है। इस लिये आप्तवत् 'आप्तके जैसे' इस तरह शुद्ध नय के अभिप्राय से कहा है । व्यवहार से तो वह आप्त ही है।
=
इस तरह श्री वर्द्धमान जिन हमे सर्वज्ञ, वीतराग और वीतद्वेष बनायेंगे, हमे अपना सर्वोत्कृष्ट स्थान प्रदान करेंगे, हमे सर्व दुःखों से मुक्ति दिलायेंगे और अनन्त, अनुपम, एकान्तिक और आत्यन्तिक ऐसे शिवसुख के दायक बनेंगे।