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तत्त्वोपनिषद् -
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निश्चितोऽवधारितः, अग्निपरीक्षानन्तरं सुवर्णजात्यत्ववत् । तावदिति । न ममाऽनेन निवेदनेनैव भवताऽपि स एव शास्तृत्वेन निश्चीयताम् अपि तु भवताऽपि विधिनाऽनेन भवदनुशासको निश्चीयताम्, अहं तु मत्कृतपरीक्षाफलमात्रं सौजन्येन वच्मीत्युदाराशयद्योतकं 'तावत्' - पदम् । अथ किंफलोऽयं निश्चय इत्यारेकायामाह यो जिनो नः अस्माकम्, मादृशां शासकत्वेन निश्चितो जिनो यैस्तेषां चाप्तवत् प्रतिभानि प्रतिभास्यतेऽनेन ज्ञेयमिति प्रतिभं ज्ञानम्, तानि सन्धास्यति सदुपदेशादिनिमित्ततदावरणक्षयाद्यापादनेन सम्यक् प्रकटीकरिष्यति, तत एव नो
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में निश्चित किया है। जैसे ही अग्निपरीक्षा से उत्तीर्ण हो कर सुवर्ण अत्यन्त शुद्ध कहलाता है, उसी तरह वर्द्धमान जिन के वचन भी उस परीक्षा से पूर्णतया उत्तीर्ण हो कर अत्यन्त यथार्थरूप से शोभायमान
है।
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यहाँ 'तावत्' पद का एक गम्भीर अर्थ है, दिवाकरजी कहते है कि, मैं ये नहीं कहता कि मैंने श्रीवर्द्धमान को चुना, इस लिये ही आप भी उन्हे ही चुन लो । मेरा आशय तो है आप भी मध्यस्थ हो कर परीक्षा की विधि से अपने अनुशासक को चुन लो, यहाँ तो केवल मैंने कि हुइ परीक्षा का परिणाम आपको सौजन्यता से दिखाया है। इस उदार आशय को 'तावत्' पद बता रहा है।
कोइ पुछे कि इतनी परीक्षा की महेनत के बाद आपने श्रीवर्द्धमान जिन को अनुशासक के रूप में निश्चित किया, इसका आपको क्या फल मिलेगा ? इसका उत्तर देते है वो जिन मेरे और जिन्होंने भी उन्हे अनुशासक के रूप में चुना है, उनके ज्ञान का संधान करेंगे, एक आप्त की तरह सदुपदेश आदि निमित्त से हमारे ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय आदि करके हमारे ज्ञान को प्रगट करेंगे, इस प्रकार हमारा अज्ञान नष्ट करेंगे और हमारे क्रोधादि कषायों को भी नष्ट करेंगे।