________________
- तत्त्वोपनिषद्अथ मध्यस्थतत्त्वान्वेषिपरीक्षकोच्चतमचित्तवृत्तिमाह - दुरुक्तमस्येदमहं किमातुरो ?
ममैष कः ? किं कुशलोज्झिता वयम् ? गुणोत्तरो योऽत्र स नोऽनुशासिता,
मनोरथोऽप्येष कुतोऽल्पचेतसाम् ?।।२७।। पुरातनप्रेमी स्वसिद्धान्तदोषान् सन्निगहते, अयं तु न तथेति स्फुटमेव यथार्थं ब्रूते, तदेवाह - दुरुक्तमस्येदम्, यद्यपि मच्छासकवचनमिदं तथापि युक्तिविकलमिति।
अथ पुरातनगृह्यास्तं शिक्षयन्ति-नीचैर्वद, किं ब्रवीषि ? ब्रह्मवचनमिदम्, ततश्च स्वीकरणीयमेव, नात्र तर्कावकाश इत्यत्राह - अहं
पक्षपातशून्य एवं माध्यस्थ्यपूर्ण तत्त्वान्वेषी की उच्चतम चित्तवृत्ति तो ऐसी होती है -
उस का यह वचन दोषयुक्त है, क्याँ में रोगी हूँ ? यह मेरा कौन लगता है ? क्याँ हम कल्याण से वंचित है ? 'यहाँ जो गुणों में श्रेष्ठ (हो) वही हमारा अनुशासक (हो)', ऐसा मनोरथ भी अल्पबुद्धिओं को कैसे (हो सकता है)?||२७।।।
हमने देखा कि पुरातनप्रेमी अपने सिद्धान्त में दोष दिखे तो उसे छिपाने का प्रयत्न करता है, मगर तत्त्वप्रेमी तो उसके जैसा नही, इस लिये स्पष्टतया जैसा देखा वैसा ही बता देता है। जैसे कि यहाँ कहा- भले ही यह मेरे शासक का वचन है, तथापि यह दुरुक्त है - युक्तिरहित है - अप्रमाण है। __यह सुनकर पुरातनप्रेमी भड़क जाते है, और उसे कहते है, अरे, धीरे बोलो, यह तुम क्या बोलते हो ? यह तो परब्रह्म का वचन है। इसका किसी भी हालत में स्वीकार ही करना है। इसमें तर्क-वितर्क १. क,ख- ०मस्यैतदहं।