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- तत्त्वोपनिषद् -
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नैवानन्तरप्रश्नाः स्वमनस्येव धियन्ते, अपि तु कथ्यन्तेऽपीति समुच्चये चकारः। उच्चैरिति न क्षोभादिना मन्मनोक्तिभिर्वक्ति, किन्तु प्रागल्भ्येन स्फुटाक्षरम् । अभिनीयेति नाकारसङ्गोपनपुरस्सरमपि तु मनोऽनुरूपाभिनयपूर्वकम्, इदमपि तत्त्वान्वेषिनिर्भयपरीक्षकलक्षणम्। यद्वा आभिमुख्येन स्वापादितदोषान् सहेत्वादि ज्ञापयित्वेत्यभिनीय । यैरेवं कथ्यते - पुरातनगृह्यसमाजेऽपि स्वस्य तत्त्वाभिमुखता प्रकटीक्रियते, तेषां महात्मनां प्रतिस्रोतोगमनोपयोगिसत्त्वविशिष्टतामूलकमहत्त्वान्वितात्मनां किमजित
मस्ति ?
न किञ्चिदित्याशयः । तथा च दुर्दान्तवादिवृन्दकरिकेसरिसङ्काशोऽसौ सर्वानपि पराभूय तत्त्वोपलब्धिसमुद्भूत-सुखसन्दोहसाम्राज्यं जयत्येव, सत्त्व के साथ बुलंदता से कहते है, अपने उन प्रश्नों को भय आदि कारणों से मन में ही दबा नहीं देते, अपने तत्त्वान्वेषी भावों को समाज़ के भय से छिपाते नहीं मगर अपने अभिनय में उनका पूर्ण प्रतिबिम्ब पड़ने देते है, अपनी बातों का समर्थन करने के लिये मजबूत हेतु, दृष्टान्तादि का प्रयोग करते है, ऐसे महापुरुष प्रतिस्रोतगमन में समर्थ ऐसे सत्त्वशाली है। नदी के प्रवाह के सामने तैरके जाना इसे प्रतिस्रोत गमन कहते है। सारी दुनिया नदी के प्रवाह के अनुसार ही गमन करती है, यह काम तो मरी हुई मछली भी कर सकती है, जो सिलसिला चला आ रहा है, उसमें अपने आपको भी बहने देना इसमें कौन सी महानता है ? तत्त्व की प्रामाणिक खोज़ और युक्तिहीन पुरातन मार्ग का त्याग करके, तत्त्वमार्ग का स्वीकार यही महान कार्य है।
ऐसे महान कार्यों करनेवाले महापुरुषों को कुछ भी अजित नहीं है, वे दुर्जेय वादीओं को वैसे ही जीत लेते है, जैसे की अकेला सिंह हाथीओं को जीत ले। फिर तो वह तत्त्व की प्राप्ति से उत्पन्न हुए सुखों के साम्राज्य को पाकर परमपद पाता है। वास्तव में इस श्लोक