Book Title: Tattvopnishad
Author(s): Kalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhak Trust

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Page 69
________________ तत्त्वोपनिषद्-१४ निश्चितत्वात्, प्रतिवादिकृतस्वमतस्वीकारविरहाच्च। अथैवमपि विजयोऽस्त्वित्यत्राह तथा चेत्यादि। परमार्थविजयाभाव इत्याशयः। आत्मादि वस्तु नित्यमेव इति प्रतिज्ञायां सर्वोऽपि हेतुर्व्यभिचारी, नृतिर्यगादिपर्यायाणामुपलभ्यमानत्वात्। इत्थमेवानित्यत्वादिप्रतिज्ञायामपि भावनीयम्। ततश्चास्य विजयोऽपि सभापतिमोहादिहेतुक इति वस्तुतः पराजय एव।।३०।। एवं तु प्रतिज्ञाभावाद्वादस्यासौ प्रसक्तः, नो चेत्तदा व्यभिचारात्पराजय एवेतीतो व्याघ्रन्यायावतार इत्यत्राह - स्वयं वादी को भी विनिश्चित ज्ञान नहीं है और हारने के बावजूद भी प्रतिवादी प्रायः उसके मत का स्वीकार नहीं करता है। कोइ कहे कि भले ही न करे, विजय तो मिला ना ? तो उसे उत्तर देते है कि इस तरह तो वास्तव में पराजय ही है, क्यूँ कि जब वादी आत्मादि वस्तु नित्य ही है ऐसी प्रतिज्ञा करता है, तब वो उसे सिद्ध करने के लिए जो कोइ भी हेतु रखे वो सब अनैकान्तिक है, क्यूँ कि आत्मा के मनुष्यादि पर्यायों की स्पष्ट उपलब्धि होती है। इसी तरह अनित्यता की प्रतिज्ञा में भी समज़ लेना चाहिए। इस तरह उसका वचन अनैकान्तिक होते हुए भी उसे विजय मिले, उसका कारण सभापति का मोह आदि ही होता है, इस लिये वादी तो हकीकत में पराजित ही है।।३०।। इस तरह तो प्रतिज्ञा ही नहीं कर सकेंगे, फिर तो वाद भी कैसे होगा ? यह तो वाद के बिना ही पराजय मिल गया। और प्रतिज्ञा करो तो अभी बताया उस रीति से अनेकान्त दोष से पराजय होगा, फिर तो 'ये बाजु से बाघ और ये बाजु नदी किनारा' ऐसी दशा हो गइ - इस बात का समाधान करते है -

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