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-तत्त्वोपनिषद् -
हन्तव्याः । एतदेवाह - ममेदं स्थानं कर्कशतर्कदृशा द्रष्टुं योग्यमिति । यद्वा कथञ्चितोऽत्रान्वयः, ततश्च येन केनचित् पथाऽपि मयाऽत्र परुषसमालोचना कार्येति ।
अथ दृष्टस्वमतदोषः परप्रेरितस्वमतयुक्तिदुर्बलत्वो वाऽऽत्मरन्ध्राणिस्वदर्शनसिद्धान्तविरोधादि - दोषान् सन्निगूहते - सर्वात्मना तद्गोपनादृतो भवति। अन्यांश्च – परवादिनो निःशङ्कं हिनस्ति - अरुन्तुदैर्दोषाविष्कारैरत्यन्तं दूनोतीति कथमेतदक्षमम् ? न विद्यते क्षमा सौजन्यं यत्रेति - अक्षमम् - मात्सर्यपूर्ण कृत्यम्, कथमेतदित्यत्यसमञ्जसदर्शनोद्भूतः खेदोदगारः ।
एवं च माध्यस्थ्यशून्यस्य तत्त्वान्वेषणमपि तत्त्वतो दोषान्वेषणम्। सोऽयं ‘वनेऽपि दोषाः’
न्यायापातः।।२६।।
अथवा कथञ्चित् का अन्वय आगे करो तो अर्थ इस प्रकार होगा कथञ्चित्= कोइ भी प्रकार से मुझे परशास्त्रों की कठोर समीक्षा करनी चाहिए, अर्थात् दोषान्वेषण करना चाहिए ।
मगर कभी स्वदर्शन में क्षति महसूस हो या कोइ स्वदर्शन की युक्तिविकलता बताये, तो पूरे प्रयत्न से आत्मरन्ध्र अपने मत के दोषों को छिपाने लगता है। अपने बड़े बड़े दोषों को नज़रअंदाज करता है, और दूसरों के छोटे दोष या दोषाभास पर पूरी शक्ति से प्रहार करता है।
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यह कितनी अक्षम क्षमारहित मत्सरपूर्ण वृत्ति ! यदि मध्यस्थता न हो, तो परीक्षा भी विवाद और वाक्सङ्ग्राम बन जाता है, और तत्त्वान्वेषण के बजाय दोषान्वेषण हो जाता है। इस तरह यहाँ यह न्याय का अवतार होता है कि- भोगी आत्मा की तपोवनस्थिति भी दोषवृद्धि का ही कारण बनती है ।। २६।।
१. 'कथञ्चित्’
पदस्य षष्ठ्या निर्देशोऽयम् ।
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