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- तत्त्वोपनिषद् -
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किमातुरः ? किमहं वातकी सन्निपातग्रस्तो वा यज् जानन्नपि विषं पिबामि, तथा च दुरुक्तत्वेन परिहार्यमेवैतदिति ।
पुनरपि तमनुनयन्त आहुः
त्वत्पितृपितामहादिनिखिलपरम्परापूज्योऽयम्, तमधिक्षिपन् किं न लज्जसे ? तत्राह ममैष कः ? न कश्चिदित्याशयः, तत्त्वान्वेषणे पित्रादिसम्बन्धस्यापि विस्मरणार्हत्वात् । न ह्यसर्वज्ञे दोषासम्भवः, ततश्च पितर्यपि परिचर्याद्येव प्रशस्यम्, न तु सर्वज्ञतादर्शनमिति ।
अथ यादृशस्तादृशो वाऽप्ययमेवास्माकमाप्तः, अयमेव सर्वथाऽऽराध्यः, का कोइ अवकाश नहीं ।
तत्त्वशोधक इसका उत्तर देते हुए कहता है- 'क्या मैं रोग से भ्रष्टमतिवाला हूँ ? क्या मुझे पागल कुत्ते ने काटा है ? क्या मैं जानबूझकर झहर पी लूँ ? जो युक्तिरहित है शत प्रतिशत गलत ही है उसे मैं कैसे मान लूँ ? इसका तो त्याग ही उचित है । '
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फिर उसे मनाते हुए कहते है, अरे भाइ, तुम्हारे पिता - पितामह आदि सारी वंशपरंपरा के ये पूज्य है, उनका अधिक्षेप अपमान करने में तुम्हे लज्जा नहीं आती है ? तत्त्वरुचि उत्तर देता है ये मेरे कौन लगते है ? यानि की कोइ भी नहीं। क्यूँ कि तत्त्वान्वेषण में पिता आदि कोइ भी संबंध का स्मरण बाधक होता है, क्योंकि उससे सत्य की खोज प्रामाणिक तौर पर नहीं हो सकती। जो सर्वज्ञ नहीं उसमें दोष क्यूँ नहीं होंगे ? और युक्तिरहित बाते करनेवाला सर्वज्ञ कैसे हो सकता है ? इस लिये पिता हो या पारम्परिक इष्टदेवता उनकी सेवा उचित सन्मान ही कर्तव्य है, नहीं कि उनमें सर्वज्ञता का दर्शन। सर्वज्ञ तो वही है कि जिसके वचन परीक्षा से उत्तीर्ण हो कर उनकी युक्तिपूर्णता एवं यथार्थवादिता का परिचय दे रहे है।
यह सुनकर पुरातनप्रेमीओं स्वस्थता खो बैठते है, और बोल उठते
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