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तत्त्वोपनिषद्
तथा च स्वाभिमताप्तगौरवेण सर्वमपि तदुक्तं युक्तमेवेत्यभिनिवेशेन निश्चिनोति न तु सम्यक्परीक्षोत्थविवेचनेन । परापोहेऽपि तद्गौरवमेवास्य निबन्धनमिति स्फुटमेव तादृशगौरवप्रयुक्ततत्त्ववैमुख्यम्।
किं तर्हि सद्गौरवबीजमित्याशङ्क्याह- गुणावबोधः - यथार्थवादिता रागद्वेषविनिर्मुक्तता – परमकरुणा - प्रशान्तमूर्तितेत्यादिलोकोत्तरगुणज्ञानं तेन प्रभव उत्पत्तिर्यस्य तद् गुणावबोधप्रभवम्, हि यतः पारमार्थिकं
गौरवम् - कस्मिंश्चिदाप्ते पूज्यबुद्धिः ।
अथ यत्किञ्चिन्निबन्धनमपि गौरवमस्तु, को दोष इत्यारेकायामाह भी अर्थ की दृष्टि से होना चाहिए, क्योंकि शब्द तो सभी सुंदर ही होते है, जब तक उनके अर्थ का विमर्श न किया जाए।
इस तरह मेरे आप्त के वचन युक्त ही है, ऐसा वो निश्चय करता है, उसका मूल अच्छी परीक्षा से उद्भूत विवेक नही होता, मगर गौरव से जनित अभिनिवेश होता है। इसी तरह परदर्शन के सिद्धान्त अयुक्त है इस निश्चय का मूल भी अपने आप्त का गौरव ही होता है। इस तरह तत्त्वानुराग गौण बनता है और स्वाभिमत आप्त का गौरव मुख्य बनता है। इस तरह तत्त्व की प्राप्ति कभी नही हो सकती।
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तो क्या किसी पर आदर नहीं रखना चाहिए ? इसका जवाब है ज़रूर रखना चाहिए, मगर वो सम्यक् गौरव होना चाहिए । ऐसे गौरव का हेतु है गुणावबोध। सर्व दर्शनों का गहरा अध्ययन करते करते जिस दर्शन के आप्त में यथार्थवादिता नज़र आये, जैसी वस्तुस्थिति हो बिल्कुल ऐसा ही उसका वचन हो, जो पूर्णतया वीतराग हो, जो क्रोधादि से अत्यन्त मुक्त हो, जिसकी अपरंपार करुणा सारे विश्व को प्लावित करती हो, जिसकी मुद्रा अत्यंत उपशान्त गुणों के जो स्वामि हो, उनके गुणों का हमे उनके प्रति गौरव उत्पन्न करे, यही सम्यक्
प्रशान्त हो, ऐसे अनेक
ज्ञान हो और वही ज्ञान पारमार्थिक गौरव है।