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स्थितं च तेषामिव 'तन्न संशयः ।
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कृतेषु सत्स्वेव च लोकवत्सलैः
- तत्त्वोपनिषद् - 8
कृतानि शास्त्राणि गतानि चोन्नतिम् ॥२१॥
न संशयः, भवदभिप्रायोऽपि कथञ्चित्समीचीन एवेत्याशयः। प्रतर्कःउत्कृष्टयुक्तिः, ततो यच्छास्त्राभिधानं न कृतम्, ततश्च युक्तिविकलम्, अत एव यत्किञ्चिदिति । तदपि तेषामिव सर्वज्ञयशः पिपासुकृतग्रन्थानामिव स्थितम् - मुग्धलोके प्रतिष्ठां प्राप्तम् । ततश्चोपादेयं भवदभिप्रायेण तादृग्ग्रन्थसर्जनमिति।
किन्तु नायमेकान्तः, तादृग्ग्रन्थेषु कृतेषु विहितेषु सत्स्वेव जनकल्याणकामिभिः शासन - त्राणशक्ति - युक्तानि परमार्थशास्त्राणि कृतानि - तरह प्रतिष्ठा पाया है, इसमें कोई संदेह नहीं । यह शास्त्रों होते हुए भी जनकल्याण प्रेमीओं ने शास्त्रों रचे, जो उन्नति को पाए है ।।२१।।
हाँ, इसमें कोइ संशय नहीं, कि जो कुछ भी प्रकृष्ट तर्क उत्कृष्ट युक्ति के बिना शास्त्र किया गया है, वो उन सर्वज्ञ माने जाने वालों के शास्त्रों की तरह प्रतिष्ठा पाया है। इस लिये आप भी मुझे ऐसे शास्त्र रचने के लिये प्रेरित करे ये आपकी दृष्टि में उचित ही है।
मगर ऐसे शास्त्र प्रतिष्ठा पाते ही है ऐसा एकान्त नहीं है। मैं आपको एक बात कह देना चाहता हूँ कि ऐसे शास्त्र बनाए हुए होते ही जनकल्याणकारीओं ने वास्तव शास्त्रों का निर्माण किया, जो तर्क और युक्ति से परिपूर्ण थे। जो शासन करके रक्षा करे वही वास्तव शास्त्र है - शासनात् त्राणशक्तेश्च शास्त्रम् | ऐसे शास्त्र भी उन्नति को पाये, आदरणीय और आचरणीय बने, कल्याण के हेतु बने, क्योंकि जगत में परीक्षक, तत्त्वजिज्ञासु एवं सत्यान्वेषीओं का सर्वथा अभाव नहीं १. क, ख - तं न । २. ख- व्व हि लो० ।
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