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- तत्त्वोपनिषद्ग्रथितानि, अथ च तेऽप्युन्नतिं गतानि। यतो दुष्कालेऽपि न तत्त्वपिपास्वत्यन्ताभावः। तदादृतिरेव तत्त्वत उन्नतिः। न चोपयुज्यते तत्त्वचिन्तायां मुग्धाभिप्रायः। एवं च लोकवत्सलपदवीचरोऽहं निःस्पृहो मुग्धविश्ववितीर्णसर्वज्ञत्वादियशसीति।।२१।।
सैव पदवी स्वपरकुशलजननी, अपरा तु यशःपिपासा पीडाविवादादिकालुष्यकरीत्याह - जघन्यमध्योत्तमबुद्धयो जना,
महत्त्वमानाभिनिविष्टचेतसः। वृथैव तावद्विवदेयुरुत्थिता,
दिशन्तु लब्धा यदि कोऽत्र विस्मयः ?।।२२।। मतिज्ञानावरणीयक्षयोपशमविशेषतारतम्यापादितजघन्यादिमतयो जना है। ऐसे शिष्टपुरुषों से मान्यता पाना वही पारमार्थिक उन्नति है। उसके सामने सारी दुनिया का भी यदि विरुद्ध अभिप्राय हो, तो भी उसकी कोइ किंमत नहीं।
इस लिये मैं सर्वज्ञ जैसा बनके पूजा पाउँ, इस लिये युक्तिरहित शास्त्र बनाने मैं आज भी तैयार नहीं हूँ। मैं तो उन्ही जनकल्याणकारीओं के मार्ग पर चलना चाहता हूँ। ।।२१।।
वही मार्ग स्व-पर का कल्याण करता है, अन्य तो यश की तृष्णा से होनेवाली पीडा को उत्पन्न करता है, एवं विवाद आदि की कलुषता पैदा करता है। यही बात कहते है___ महानता के अभिमान से अक्कड मन वाले, जघन्य-मध्यमउत्कृष्ट बुद्धिवाले, विवाद के लिये सज्ज, ऐसे लोग व्यर्थ ही विवाद करते है। तत्त्वज्ञ जन बताये यदि यहाँ कोइ विस्मय हो।।२२।।
जितने मस्तिष्क उतनी ही बुद्धिया होती है। सबके अपने अपने अभिप्राय होते है। उसमे भी मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम की