Book Title: Tattvopnishad
Author(s): Kalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhak Trust

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Page 46
________________ - तत्त्वोपनिषद् ४३ अभिमानिभिरयं सर्वज्ञ इति यशो मुग्धलोककृतं तत्पिपासुभिः - तत्सतृष्णैः पुरातनैर्यानि शास्त्राणि कृतानि, अद्यैव - अनायासेन लीलयैवाल्पसमयेनैव तथा - तादृशानि शास्त्राणि कर्तुमहं क्षमः। क्रियन्तां तीत्यत्राह - न चेन्मयि घृणा - मुग्धजगज्जीवानुकम्पा, न चेच्च व्यपत्रपा - अन्यतः त्रपा लज्जा अपत्रपा (हैम), विशेषेणापत्रपा व्यपत्रपा – सर्वज्ञकीर्तितृष्णया जगद्रोहपातकभिया सशूकत्वेन च गुर्वादिशिष्टजनेभ्यः सलज्जता। द्वयमेतन्मम तादृशशास्त्रसर्जने बाधकमित्याशयः। न चेत् करोमि तदा सत्यामपि शक्तौ सर्वज्ञयशोवञ्चितं मां धिगस्तु - इति वक्रोक्तिः, परोक्षाक्रोशश्चेति।।२०।। अथालमनेनात्मविक्रोशनेन भूयतां भवताऽपि सर्वज्ञेनेत्यत्राह - कृतं न यत् किञ्चिदपि प्रतर्कतः, मैं आज ही बिना आयास बना सकता हूँ, यदि मेरी जगत के जीवों प्रति दया या पापसेवन में लज्जा न होती तो। यानि मैं सर्वज्ञ हूँ, ऐसी कीर्ति मुझे मिले, इस तृष्णा से कही मुझ से विश्व का विद्रोह करने का पाप न हो जाये, इस भय से तथा मैं धृष्टतारहित हूँ, अतः वैसा पाप करने में गुरु आदि शिष्ट जनों से लज्जा का भी अनुभव करता हूँ। ये दो चीज़ ही मुझे ऐसे शास्त्र के निर्माण करने से रोक रही है। अरे... मैं ये क्या कर रहा हूँ, इतने सस्ते में इतना बड़ा गौरव मिल रहा है, और मैं उसे गवा रहा हूँ.... ओह.... मुझे धिक्कार हो। इस तरह वक्रोक्ति- व्यंग वचन से पुरातनों के दोष प्रति दिवाकरजी परोक्ष आक्रोश व्यक्त कर रहे है।।२०।। यदि कोइ कहे कि, भाइ, इस तरह अपने आपको क्यूँ दाँट रहे हो ? आप भी उनकी तरह सर्वज्ञ बन जाओ ना ? इसका उत्तर देते है - उत्कृष्ट तर्क के बिना किया हआ शास्त्र भी उन्हीं शास्त्रों की १. ख- कृति च यत्कि०।

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