Book Title: Tattvopnishad
Author(s): Kalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhak Trust

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Page 44
________________ तत्त्वोपनिषद् - जनिरेवोचित इत्यभिप्रायतः) तदेवं पुरातनप्रेष्यव्यामोहितविश्वे परीक्षकदुष्काल इत्याहत्रयः पृथिव्यामविपन्नचेतसो, न सन्ति वाक्यार्थपरीक्षणक्षमाः । ४१ यदा पुनः स्युर्बृहदेतदुच्यते, न मामतीत्य त्रितयं भविष्यति ।।१९।। पक्षपातशस्त्रेण न नष्टं चित्तं येषां तेऽविपन्नचेतसः शास्त्रवाक्यार्थपरीक्षासमर्थास्तेऽखिलक्षितौ त्रयोऽपि न । यदा त्रयस्तु स्युस्तदैतत्सङ्ख्याऽप्यतिमहती । एतद्वचनमप्यश्रद्धेयप्रायमभिनिवेशोदितं रभसोक्तं वा जो एवकार है उसका अन्वय ऐसे बदमाश को उत्पन्न ही नही करना चाहिए ऐसा किया गया है। ) इस तरह परीक्षक की तर्कपूर्ण बातों की उपेक्षा करके उसे उड़ा देने में और जगत को मोहित करने के लिए वह निंदक सफल हो जाता है ।।१८।। इस तरह पुरातनप्रेमीओं से व्यामोह प्राप्त इस विश्व में परीक्षकों का दुष्काल है.... इसी बात को पेश करते है वाक्यार्थ की परीक्षा करने में समर्थ, अविनष्ट चित्त वाले, ऐसी तीन व्यक्ति भी पृथ्वी पर नही है। यदि है, तो यह अतिशयोक्ति है, (तथापि ) मुझ से अतिरिक्त तीन नही होंगे ||१९|| जिनका चित्त पक्षपात से विनष्ट नहीं हो गया हो, जो वाक्यार्थ की परीक्षा में समर्थ हो, परीक्षारूप अग्नि में शास्त्ररूप सुवर्ण की कसौटी कर सके, ऐसे मध्यस्थ विद्वान् सारी धरती में तीन भी व्यक्ति नहीं। शायद कोइ कहे के तीन तो होगे, तो यह भी अविश्वसनीय बात है, अभिमान से कही हुई बात है, बिना सोचे-समझे की हुइ एवं १. ख- ०व्यामपिपन्न० ।

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