Book Title: Tattvopnishad
Author(s): Kalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhak Trust

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Page 45
________________ -तत्त्वोपनिषद् - नीत्युल्लङ्घनपरमिति बृहदधिकमुच्यते । तथाप्येतन्मम विश्वासः, यत् त्रयोऽपि यदि स्युस्तदा तेऽपि न मां विना, मत्सहिता एवेत्याशयः, मद्विना तु द्वावेव भविष्यत इत्यतिदौर्लभ्यं परीक्षकाणाम्, प्रायः सर्वेषां विचारालसत्वादिति हृदयम्।।१९।। इत्थं च बाधकाभावाद्युक्तिरिक्तेष्वप्यनल्पादरः, ततश्च यत्तच्छास्त्रसृष्टिना सर्वज्ञतुल्यतेत्यत्राह पुरातनैर्यानि वितर्कगर्वितैः, कृतानि सर्वज्ञयशः पिपासुभिः । घृणा न चेत् स्यान्मयि न व्यपत्रपा, ४२ 1 तथाहमद्यैव न चेद् धिगस्तु माम् ||२०|| विविधा विपरीताः युक्तिविरुद्धा वा तर्काः - वितर्कास्तैर्गर्वितैःनीति का अतिक्रमण करनेवाली बात है, बहुत बडी बात है, यह भी आश्चर्यकारी है। मगर मैं इतना तो ज़रूर कहना चाहूँगा कि वे तीन भी मेरे सिवाँ न होंगे। यानि कि मेरे अलावा तो दो ही होंगे, क्योंकि परीक्षक तो अति अति दुर्लभ है। सारी दुनिया तो आँख बंध करके हा जी हा करने में ही विद्वान है । । १९ ।। - - इस तरह परीक्षकों के अभाव में निर्भयता से जिसे जो जी चाहा वो शास्त्रो में लिखा दिया । अंधश्रद्धालु जगत उन शास्त्रकारों को ही सर्वज्ञ मानने लगा। ऐसे शास्त्र रचने में कोई दुष्करता नहीं थी, यह कहते है वितर्कों से गर्वित, सर्वज्ञ यश के प्यासे ऐसे प्राचीनों ने जो किया, उस तरह मैं आज ही कर सकता हूँ, यदि मुझ में दया या लज्जा न होती तो, यदि ( मैं ऐसा ) न ( करूँ तो ) मुझे धिक्कार हो ||२०|| - विविध या युक्तिविरुद्ध तर्कों से पुरातनों ने अपने आपको सर्वज्ञ कहलाये ऐसी कीर्ति की तृष्णा से जो शास्त्र बनाये, वैसे शास्त्र तो

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