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- तत्त्वोपनिषद्द्रोहरूपत्वात्। निघृणकृत्यं च। सर्वोऽप्यात्मनीन इति हि विद्वत्प्रवादः। न मन्दोऽप्यत्रापवादः। तर्हि बुधेषु किं वक्तव्यम् ? अतस्तदसमञ्जसप्रवृत्तौ को हेतुः ?
उत्तरयति - मानहतैरित्यादि। तथा चाभिमानदण्डिताः पुरातनास्तत्त्वप्राप्तिफलवञ्चिताः। अस्माकमध्वाऽसन्नितिघोषणासत्त्वविकलाः, स्वपरहितमवगणयन्त्येते। इत्थं च तैर्लोकानामात्मनश्च कल्याणमुपेक्षितमेव। न हि मिथ्यात्वे तादृग् दुःखम्, यादृग् मिथ्यात्वप्राकट्य इति दुरन्तो मानविकारः।।१४।। अपने आपको तो धोखे में नहीं ही डालेगा ना ? विद्वज्जनों का यह प्रवाद है कि सर्व जीव अपनी आत्मा का हित ही चाहते है। मन्दबुद्धि जीव भी इस बात में अपवादभूत नहीं है। फिर प्रबुद्ध जनों की तो क्याँ बात करे ? फिर उनकी ऐसी प्रवृत्ति का क्या रहस्य ?
अन्तिम पंक्ति में उत्तर देते है - पुरातनों अपने अभिमान के शिकार हो गये। शास्त्राभ्यास से सत्य की प्राप्ति होने पर भी उसके फल से वञ्चित रह गये। हम गलत है, हमारे कइ साल मिथ्या आचरण में गए, हमारा रास्ता गलत है, यहाँ से वापिस लोटना ही उचित है, यह समज़ में आने पर भी ऐसा करने में उन्हें अपना अभिमान रुकावट बन गया। ऐसा कहने में उन्हें अपनी इज्ज़त और गौरव की हानि महसूस हुई। उन्होंने जनकल्याण और आत्मकल्याण की उपेक्षा की।
अब तो अच्छी तरह पता है कि इस रास्ते पर चलने से कभी भी लक्ष्य की प्राप्ति नहीं। फिर भी चलते रहो और चलाते रहो। कैसी विचित्रता ? गलत होने का कोइ दुःख नहीं, और गलत दिखने का - दुनिया में यह गलत है - ऐसे ज़ाहिर होने का असह्य दुःख। कैसी अभिमान की विडम्बना ! ।।१४।।