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-तत्त्वोपनिषद्ततश्च जगद्विलोप इत्याहवृथा नृपैर्भर्तृमदः समुह्यते,
धिगस्तु धर्मं कलिरेव दीप्यते। यदेतदेवं कृपणं जगच्छ7
___ रितस्ततोऽनर्थमुखैर्विलुप्यते।।१५।। डुभृञ् धारणपोषणयोरिति धातुपाठः। अहितेतरनिवृत्तीतरे च ते तत्त्वतः। तदभावे निष्फलमेष नृपाणां भर्तृत्वमदसंवहनम्। अथ धर्मस्वातन्त्र्यमनपराधः, नृपाणामधिकारः, न, तत्त्वानुपपत्तेः, गौणत्वात्तत्त्वादेः,
इसका परिणाम है जगत का विलोप, यह कहते है -
जगत के राजाओं हम प्रजा का पालनपोषण करते है, ऐसा अभिमान धारण करते है, यह वृथा है, व्यर्थ - निष्कारण है। क्यूँ कि वे उस विषम परिस्थिति से उसे बचा नहीं सकते।
राजाओं वृथा 'नाथ' होने का अभिमान रखते है, (ऐसे) धर्म को धिक्कार हो, (जिस से) कलह ही दीप्त होता है, यतः इस तरह बेचारा यह विश्व अनर्थ के प्रचारक ऐसे धूर्तों के द्वारा हर बाजु से विनष्ट होता है।।१५।।
धातुपाठ में डुभृञ् धातु का अर्थ है पालन-पोषण। उन्मार्ग से - अहित से बचाना - रक्षण करना यही पालन है और सन्मार्ग - हित में जोडना यही वास्तविक पोषण है। यदि यह न कर सके तो उसे भर्ता कहलाना उचित नहीं है।
कोइ प्रश्न करे कि भाइ ! जो भी हो, धर्म तो कर रहे है ना ? फिर इसमें कौन सी बुराइ है? हर किसी को जो मन माना सो वो करे, यही तो व्यक्तिस्वातन्त्र्य है। इसमें राजा क्या करे? इसमें कौनसा अपराध है ? इससे क्या नुकशान है ?
इसका उत्तर देते है - यह वास्तव धर्म नहीं, अपने मन से