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तत्त्वोपनिषद् -
स्मृतिमोह एव रहस्यम् ॥ ८ ॥
अथास्यैव पक्षपातस्य पराक्रममाह न विस्मयस्तावदयं यदल्पतामवेत्य भूयो विदितं प्रशंसति ।
परोक्षमेतत् त्वधिरुह्य साहसं
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प्रशंसतः पश्यत 'किं नु भेषजम् ? ।।९।।
अयमित्यलसः। विदितप्रशंसने सम्भवत्यपि माध्यस्थ्यम्, परोक्षप्रशंसने त्वन्यत्र पक्षपातातिशयं न किञ्चित् ।
नहीं होती। इस लिये कवि को मरना पडेगा, पुरातन बनना पडेगा, उसके बाद ही लोग उसकी कदर कर पायेंगे। तो यहा एक ही रहस्य है जिसका नाम है स्मृतिमोह ||८||
अब पुरातनो परका पक्षपात जो पराक्रम करता है अद्भुत आश्चर्य दिखलाता है, उसे कहते है
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आलसी पुरुष ग्रन्थ की अल्पता को जानकर, उस ग्रंथ को ज्ञात करके उसकी प्रशंसा करता है। इसमें कोइ विस्मय नही। लेकिन परोक्ष ग्रन्थ की भी साहस करके प्रशंसा करता है, इसका औषध क्या हो सकता है ? ||९|
आलसी पुरुष पढ़ने का भी चोर होता है, मगर यदि वो जान ले कि कोइ पुरातन ग्रंथ छोटा है, तो उसकी अल्पता को जानकर उस ग्रंथ को ज्ञात कर ले, या तो किसी ग्रंथ के छोटे अंश को जान ले, फिर उसकी प्रशंसा करे। इसमें तो कोइ विस्मय नहीं ।
मगर जिस ग्रंथ को कभी भी देखा-सुना नहीं, उस ग्रंथ की भी साहस करके जो प्रशंसा करता है, उसका औषध भला क्याँ हो सकता है ? आशय यह है कि जो ज्ञात है, उसकी प्रशंसा करने में तो मध्यस्थता संभवित भी हो सकती है। किन्तु जिसे देखा तक नहीं, उसकी प्रशंसा १. क - किं तु भे० ।