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-तत्त्वोपनिषद्विचारणीयता। इतश्च तदपरीक्ष्यता, परम्परागतबहबुधसुबुद्धत्वात्, न हि सर्वेऽपि ते पामराः। के वयं परीक्षाविधिदुर्विदग्धा इति। एवं च परमश्रद्धेयमिदम्। ___ अथैतद्वक्तव्ये प्रथमैवारेका यत् किं नु स विशेषत एव प्रशंसति ? स्वाभिमतशास्त्रप्रशंसने किं शास्त्रकारगौरवमानं पुरस्करोति ? अत्रोत्तरः - किलेतरा क्षेपकथा - किलेति सस्मिताप्तवचनसूचकम् । इतरा - तदुक्तान्या क्षेपकथा - निन्दावार्ता। अयमत्राशयः, यदि वक्तृगौरवं विमुच्य माध्यस्थ्येन प्रत्यक्षादिप्रमाणैः शास्त्रपरीक्षां कृत्वा यथार्थाभिप्रायो दीयते तदा स
नहीं। और आप इसका समीक्षात्मक अभ्यास करके उसकी परीक्षा करना चाहते हो ना ? वह काम तो कइ प्राचीन विद्वान कर चुके है। कितने सालों से यह शास्त्रों चले आते हैं, वे सब विद्वान बुझर्गों पागल थोडे ही थे ? इस लिये शास्त्रों की परीक्षा करने की कोई जरुरत नहीं। यह सब सुबुद्ध है - परम्परागत विद्वानों द्वारा अच्छी तरह ज्ञात ही है। इस तरह यह सब परम श्रद्धेय है, अविचारणीय है, अटल सिद्धान्त है।
अब दिवाकरजी इस बात पर कहते है कि इसमें एक ही विशेष पहलू के आधार पर ही प्रशंसा की गइ है। वो है शास्त्रकर्ता का गौरव। प्रश्न इतना ही है, कि क्यूँ इसी दृष्टि से वह प्रशंसा करता है ?
इसका एक ही जवाब ज्ञात होता है कि अन्य दृष्टि से शास्त्र की युक्तिक्षमता - उसकी प्रामाणिकता - प्रत्यक्ष और अनुमान से शास्त्र की कसौटी - यह सब पहलूँ पर विचार करके यदि शास्त्र के बारे में अभिप्राय दिया जाय, तो शायद वो केवल क्षेपकथा - निंदा बन जायेगी।
आशय इस प्रकार का है - यदि वक्ता के प्रति गौरव के भाव को छोड़कर मध्यस्थता से प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से शास्त्र की परीक्षा करके यथार्थ अभिप्राय दीया जाए तो वह निन्दारूप ही होगा।