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तत्त्वोपनिषद्इत्थञ्च पितृपरम्पराऽऽगतासाध्यव्याधिः पुरातनप्रेमा, तस्मादस्य भेषजाभाव इत्यभिप्रायः।।९।।
अथ परीक्षाभयभीतानां तत्तामाविष्कुर्वन्नाह - परीक्षितुं जातु गुणौघ ! शक्यते,
विशिष्य ते तर्कपथोद्धतो जनः। यदेव यस्याभिमतं तदेव त -
च्छिवाय मूलैरिति मोहितं जगत्।।१०।। गुणौघ इति भयप्रयुक्तविनयहेतुकामन्त्रणवचनम्। जातु-कदाचित् परीक्षितुं शक्यतेऽपि, किन्तु प्रकृते तु परीक्षा सर्वथाऽशक्या। ते - करने में तो अति पक्षपात के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। पुरातनप्रेम तो मानो पितृपरंपरा से आया हुआ एक असाध्य रोग है, जिस का कोइ
औषध नही है ।।९।। ___अब जो परीक्षा से डरते हैं उनके स्वरूप को प्रगट करते हुए कहते है - ___ "हे गुणों के वृन्द ! कभी परीक्षा करना शक्य है, किन्तु तेरे लिये विशेष रूपसें (अशक्य है, यतः) लोग तर्कमार्ग में उद्धत है। 'जिसे जो पसंद हो, वही उसका कल्याणहेतु है', इस तरह मूढ़ लोगों ने विश्व को मोहित किया है।।१०।।
यहाँ गुणाकर ! ऐसा संबोधन इस भय से किया गया है, कि कहीं यह पुरातनभक्त परीक्षाप्रेमी बन कर हम से विमुख न हो जायें। भय से भी विनय किया जाता है, यहीं भयविनय उक्त संबोधन का हेतु है।
हे गुणाकर ! कभी परीक्षा करना शक्य है, किन्तु उक्त रीति से प्रस्तुत में परीक्षा शक्य नहीं, और आपको जिसकी परीक्षा अभिमत है, १. क- ०तुं या तु गुणोऽघ श०। २. ख- विशेष्यते त०।