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-तत्त्वोपनिषद्स्वयं नष्टा नाशयन्ति जगत्, कुतर्काद्यनुभावात्, अतस्त्याज्यः स माध्यस्थ्यमास्थितैः, यतः न प्रागुपपादिते मध्यस्थकृते तत्त्वजिज्ञासाप्रयुक्तपरीक्षणे कुतर्काद्यवकाशः। यदेवेत्यत्र तु ब्रूमः- न हि सुधाबुद्धिपीतं हालाहलं न मारयतीति नाभिमतशिवदयोर्व्याप्तिरिति यत्किञ्चिदेतत्।।१०।।
अथ विरोधानुरक्ताविरोधविरक्तविडम्बनामाह -
परस्परान्वर्थितया तु साधुभिः, जो सुना उसे स्वीकार कर लिया, वे स्वयं तो परीक्षा करना हरगीझ नही चाहते, मगर कोइ परीक्षा करे उससे भी वे काँपने लगते हैं। कही हम झूठे साबित हुए तो? यह भय उन्हें सताता रहता हैं। इसी हेतु वे परीक्षा के विरुद्ध तरह तरह की बातें बनाकर भोली जनता को अंधश्रद्धालु बनाने के लिये प्रयत्नशील रहते हैं। अतः स्वयं तो विनष्ट है ही, जगत का भी विनाश करते है।
मगर, जिस तरह पहले कह चुके है, ऐसे मध्यस्थ दृष्टि से तत्त्वजिज्ञासापूर्वक किये गये परीक्षण में कुतर्क की कोइ सम्भावना नहीं है। फिर कुतर्क के नाम पर उसे कोसने में परीक्षा का भय और आत्मनिगृहनके सिवा और क्या हो सकता है ?
कोइ झहर को अमृत समझ कर पी ले तो क्या वो मर नही जायेगा ? आग में पानी समझ कर कूद पडे, तो जल नहि जायेगा ? इस लिये जिसे जो पसंद हो वही उसे मुक्ति दिलवायेगा, इस बात में कोइ प्रमाण नहीं.... यह तो केवल मोहराजा के सेवकों की जगत को मोहित करने की चालबाझी है।।१०।।
जो विरोधपूर्ण शास्त्रों को अपूर्व श्रद्धा से स्वीकारते हैं, और विरोधमुक्त युक्तियुक्त शास्त्रों की परीक्षा तो छोडो, उनके दर्शन भी नहीं करते, यह भी गर्व की बात है। इसी विचित्रता का दुःखसे वर्णन करते है -
अविरोध के दृष्टा ऐसे महात्माओं ने परस्पर अन्वर्थयुक्त ऐसे शास्त्रों १. क,ख- ०रान्वर्थतयातिसाधुभिः ।