Book Title: Tattvopnishad
Author(s): Kalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhak Trust

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Page 23
________________ २० -तत्त्वोपनिषद्तान्यगाधपाराणि दुर्ग्रहाण्येवेति नाद्भुतम्।।७।। अथ पुरातनपक्षपातविजृम्भितमाहयदेव किञ्चिद् विषमप्रकल्पितं, पुरातनैरुक्तमिति प्रशस्यते। विनिश्चिताऽप्यद्य मनुष्यवाक्कृति न पाठ्यते यत् स्मृतिमोह एव सः।।८।। पुरातनोक्तत्वमेव लोकप्रशंसाप्रयोजकम्, न तु विनिश्चितत्वमिति। अत एव जीवन् कविः प्रायः कीर्तिवञ्चित इति प्रवादः। तदत्र हो सकता है ? यह तो जैसे पर्वत की चोटी पर एक अंध आदमी दौड रहा है, इसे आत्महत्या नहीं तो और क्या कहें ? ||७|| प्राचीनों पर पक्षपात रखने से जिस परिस्थिति का निर्माण हुआ है उनका बयान करते हए कहते है - जो कुछ भी युक्तिरहित कल्पना हो, वो भी 'प्राचीनों ने कहा है' इसी बल पर प्रशंसापात्र बन जाती है। और आज के मनुष्य के वचन से बनी कृति युक्ति से सुनिश्चित होने के बावजूद भी पठन-पाठन का विषय नहीं बन पाती, यह केवल स्मृति मोह ही है।।८।। प्राचीन युक्तिहीन ही होता है ऐसा आशय नहीं, मगर जब प्राचीन होने के नाते ही विषम कल्पना भी आँखे बंध करके स्वीकृत एवं आदरणीय हो जाये और नवीन कल्पना चाहें कितनी भी निश्चयपूर्ण और युक्तियुक्त होती हुइ भी उपेक्षापात्र बन जाये - वो भी सिर्फ एक ही कारण - यह तो आधुनिक है - आजकल की है। अरे भाइ ! क्या है वो तो देखो... मगर नहीं.... पुरातनों परका निश्चल प्रेम उस पर नज़र तक नहीं करने देता। किसीने सच कहा है - जीवंत कवि की कृति कभी प्रशंसापात्र १. क- श्चितापाद्य। २. ख- पठ्यते।

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