Book Title: Tattvopnishad
Author(s): Kalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhak Trust

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Page 22
________________ - तत्त्वोपनिषद् - ततश्चैन्द्रियकत्वेनावश्यं परीक्षावकाशः। अनुमितिरपि नासुकरा, तत एवातीन्द्रियेष्वपि निर्णयः सुलभः। अन्यथा तु स्फुट एवातिप्रसङ्गः। तथा चाचार्याः - दृष्टबाधैव यत्रास्ति, ततोऽदृष्टप्रवर्तनम्। असच्छ्रद्धाभिभूतानां केवलं ध्यान्ध्यसूचकम् - इति (योगबिन्दौ) विचारालसानामलब्धपाराणीवातीन्द्रियावगाहनानि, कर्णवान् - नाविकः, पक्षे यस्य श्रवणश्रद्धयोरेव कौशलं स कर्णवान्, दृष्टेष्वपि प्रश्नादिविरहेणासत्प्रायोमुखादिः, तस्य में परीक्षा का अवकाश अवश्य है। अनुमान प्रमाण का प्रयोग भी दुष्कर नहीं है, इसी हेतु से जो बात हमारी इन्द्रियों का विषय नहीं है, उस का भी निर्णय सुलभ हो सकता है। __ अब रही बात सर्वथा अतीन्द्रिय बातों की, तो जिसकी वाणी दृष्ट पदार्थों में इन्द्रिय और तर्क से यथार्थ साबित होती है, उसकी अतीन्द्रिय विषयक वाणी में जरुर श्रद्धा कर सकते है। मगर दृष्ट पदार्थों में ही जिसका वचन टिक नहीं पाता उसकी अतीन्द्रिय विषयक वाणी का विश्वास कैसे हो सकता है ? योगबिंदु में आचार्य हरिभद्रसूरि महाराजा कहते है - जहा दृष्ट से ही बाधक है, उससे अदृष्ट की प्रवृत्ति करना यह अंधश्रद्धा ही नही, अज्ञान भी है। जो आँखों के सामने की वस्तु पर कि गयी बातों की भी समीक्षा नही करते, उन आलसीओं के लिये अतीन्द्रियविषयक बातों की समीक्षा तो एक ऐसे समुद्र जैसी है, जिनका पार नही पा सकते। कर्णवान = कर्णधार = नाविक, वह असमीक्षक हो तो सागर पार नहीं कर सकता, प्रस्तुत में जो कर्णवान् है - केवल कानों का ही उपयोग करता है, प्रश्न या तर्क करने के लिये उसके पास जबान या जिगर है ही नहीं, जो केवल सुनना और श्रद्धा करना ही जानता है, ऐसी कर्णवान् व्यक्ति का उस अगाध और अपार समुद्र को पार करना कैसे सम्भवित

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