Book Title: Tattvopnishad
Author(s): Kalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhak Trust

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Page 20
________________ - तत्त्वोपनिषद् सदातनम्। ततश्चानुरूपमिदमुदितम् स्ववधाय धावतीति । एवं च पुरातनेषूचितादरपुरस्सरं तदुदितपरीक्षात्मकाध्ययन एव वैदुष्यम् । नायं वादविग्रहः, किन्तु तत्त्वजिज्ञासा, सत्यपक्षपातप्रभवं तदन्वेषणम्। तत्परिपन्थिनी 'यन्मदीयं तत्सत्य' - मिति चित्तवृत्तिः, सर्वत्र सङ्घर्षजननी चेयम् । 'यत्सत्यं तन्मदीय' - मित्येव चित्तवृत्ति - स्तत्त्वजिज्ञासावल्लीकादम्बिनी । सेयं सत्यान्वेषणाभिलाषातिशयसवित्री विमुक्तसाध्वसा ससत्त्वसाध्याऽवस्था।।६।। अथ कोऽतीन्द्रियार्थेषु तर्कावकाशः ? को नु परमात्मसु पर्यनुके परिणाम से शायद एक बार दुःख होगा, मगर परीक्षा के बिना तो सदा के लिये दुःखी होना पडता है। दुनिया की इस करुण दशा को देखकर ऐसा लगता है कि परीक्षा और समीक्षा से मूँ मोड लेने वाले लोग आत्महत्या करने के लिये प्रयत्नशील है। - १७ आओ, आज एक निश्चय करे, सभी दर्शन के प्राचीनपुरुषों पर पूर्ण सम्मान के साथ उनकी बातों पर विमर्श करे। यह हार-जीत की धून से भरा युद्ध नही। यह केवल तत्त्वजिज्ञासा है। सत्य के प्रेम से उद्भूत एक सत्य की शोध है। 'मेरा वो सच' यह खयाल तत्त्वप्राप्ति के लिये बडी रुकावट है। जीवन के हर पहलू में यह खयाल संघर्ष को पैदा करता है। तत्त्व को पाना हो तो यही भावना रखनी है कि 'सच वो मेरा' । इस भावना में ममत्व नही, मोह नही, घबराहट नही। इसमें तो सत्य को पाने की एक अद्भुत अभिलाषा है, निर्भयता से सत्य की शोध करने की क्षमता है । यही भावना तत्त्वजिज्ञासा का मूल है। आज से हम जीवनमन्त्र बनाये - 'सच वो मेरा ' ॥ ६ ॥ अब दिवाकरजी के सामने एक प्रश्न खडा होता है कि- अतीन्द्रिय चीज़ो में तर्क का कोइ अवकाश नही होता है। फिर आप विमर्श- समीक्षा और परीक्षा के नारे क्यूँ लगाते हो ? भला, हमारी शक्ति तो कितनी सीमित है, इन्द्रियकृत ज्ञान कितना मर्यादित है, फिर हम परमात्मा के

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