Book Title: Tattvopnishad
Author(s): Kalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhak Trust

View full book text
Previous | Next

Page 18
________________ - १५ - तत्त्वोपनिषद् - न ह्युभयपक्षवार्ताश्रवणमन्तरेण न्यायालयेऽपि न्यायसम्भवः। अपरपक्षगजनिमीलिकेति स्फुटैवान्यायकारिता, तत्त्वभयम्, आलस्यम्, मान्द्यम्, पक्षपातो वा। जन्मिनां जन्म क्वचिदेकस्मिन्नैव दर्शने। ततश्चैषां तस्मिन्नेव दृढानुरागः। किन्तु परस्परमत्यन्तविरुद्धदर्शनेषु तत्त्वसम्भव स्तु क्वचिदेकस्मिन्नेव दर्शन इत्यशङ्कितम्। किञ्च सामान्यस्यापि प्रतिक्षेपः मैं अल्पबुद्धिवाला हूँ, ऐसा सोचता हुआ वह आत्मघात के लिये दौडता है।।६।। वो आलसी जिस जिस तरह निश्चय पर नहीं आ सकता है, उस उस तरह वो इस तरह खुश होता है कि मानो उसे अच्छी तरह ज्ञान हो गया है, बराबर निश्चय हो चूका है। 'बुझर्गों के वाक्य सच्चे ही होते है, मैं तो अल्पमति - अज्ञानी हँ - मैं भला इसमें क्या विचार करूं ? मुझे तो सिर्फ आँख बंध करके श्रद्धा से उनकी बातों का स्वीकार करना है।' बेचारा ऐसा सोचता है, और मानो अपनी इस मूर्खता से पर्वतपर से कूदकर आत्महत्या करने के लिये दोडनेवाले व्यक्ति का अनुकरण करता है। भला, कोर्ट में कभी भी एक पक्ष की बात सुनके ही सुनवाई होती है ? दूसरे पक्ष की बात सुने बिना ही कोई निर्णय किया जाता है ? क्या ऐसे ही लिये गये निर्णय में सच्चाइ की गुंजाइश है ? क्या ऐसा निर्णय न्यायपूर्ण है ? क्याँ ऐसे निर्णय के भीतर तत्त्व से भयभीतता का प्रदर्शन नही है ? या तो तत्त्व का अन्वेषण करने में आलस्य नहीं है ? या तो बुद्धि की मन्दता या पक्षपात नहीं है ? इनमे से एक दोष तो अवश्य है। हर किसी का जन्म कोइ न कोइ दर्शन को मानने वाले घर में होता है, और उसको अपने अपने दर्शन में दृढ विश्वास हो जाता है। श्रद्धा होना अच्छी बात है। मगर परस्पर अत्यन्त विरुद्ध दर्शनों में सबको अपने अपने प्राचीन पुरुषों पर अडग भरोसा हो, तब उनमें सच्चाइ की शक्यता तो किसी एक में ही होगी ना?

Loading...

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88