Book Title: Tattvopnishad
Author(s): Kalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhak Trust

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Page 10
________________ - तत्त्वोपनिषद् श्रीसिद्धसेनदिवाकरसूरिकृतषष्ठीद्वात्रिंशिकावृत्तिरूपा ।। तत्त्वोपनिषद्।। यदशिक्षितपण्डितो जनो विदुषामिच्छति वक्तुमग्रतः। न च तत्क्षणमेव शीर्यते जगतः किं प्रभवन्ति देवताः।।१।। (वैतालीयम्) तत्त्वोपदेशकं नत्वा, परं तत्त्वं गुरुं तथा। तत्त्वोपनिषदं वक्ष्ये, तत्त्वतृषाकरी विशाम् ।। अशिक्षितेत्यादि। व्याहतम्, न, बह्वर्थत्वात्। असम्बद्धानर्थकनिरर्थकान्यतमतदुक्त्यप्रकाशनमेव तल्लाघवौषधम्। आह च - विभूषणं अशिक्षित - पंडित जन विद्वानों के समक्ष जो कहना चाहता है, वो उसी समय नष्ट क्यूँ नही हो जाता ? भले ही मनुष्य उस युक्तिरहित बातों की उपेक्षा करे, मगर क्या दुनिया में देवताओं का भी कोई प्रभाव नहीं रहाँ ?||१|| तत्त्व के उपदेशक ऐसे परमात्मा को तथा परम तत्त्वस्वरूप ऐसे सद्गुरु को नमन कर के मनुष्यो को तत्त्वतृष्णा उत्पन्न करने वाले ऐसे तत्त्वोपनिषद् ग्रंथ का मैं प्रतिपादन करूंगा। दिवाकरजी की इस मार्मिक उक्ति पर विमर्श करे, उससे पहले ही एक प्रश्न होता है, कि यहा अशिक्षित पंडित ऐसा जो विधान किया गया वो तो परस्पर विरुद्ध बात है। भला... अशिक्षित हो, वो पंडित कैसे हो सकता है ? जवाब है - अशिक्षित ऐसा पंडित - यह अर्थ में विरोध सम्भवित है, मगर इस पद के कइ और अर्थ है। देखिए, (१) जो शिक्षित भी नहीं और पंडित भी नहीं= अशिक्षितपण्डित। १. मनुष्याणाम्।

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