Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 8
________________ ( २ ) हुआ है, इसे हम अपनी लेखनीसे लिखें यह शोभास्पद नहीं हो सकेगा । इसलिए हम समाज के प्रथितयश तीन महान् विद्वानोंकी सम्मति इस संबंध में यहां उद्धृत करते हैं, जिससे इस प्रकाशन की उपयोगिताका अनुभव होगा । श्री न्यायालंकार, वादीभकेसरी, विद्यावारिधि, पं. मक्खनलालजी - शास्त्री 'तिळक ' आचार्य - गोपाल दिगंबर जैन सिद्धांत विद्यालय मोरेना 1 श्री तत्त्वार्थश्लोक वार्तिकालङ्कार, दि. जैन ग्रन्थोंमें एक महान् दार्शनिक ग्रन्थ है । तत्त्वार्थ सूत्रपर उसे एक महाभाष्य कहा जाय तो उसके अनुरूप ही होगा । वह अत्यन्त गम्भीर एवं अत्यन्त क्लिष्ट है । ऐसे जटिल गहन ग्रन्थकी हिन्दी टीका जितनी सुंदर, सरल, एवं सफल बनी है, यह देखकर मेरा चित्त अतीव प्रमुदित हो जाता है । मैंने उसके प्रथम और द्वितीय भागकी उन क्लिष्टपंक्तियोंकी भी हिन्दी टीका देखी, जिनका मर्म अच्छे २ विद्वान् भी समझ नहीं पाते हैं । जैसा यह मद्दान् ग्रन्थराज है वैसा ही महान् विद्वान् उसके हिन्दी टीकाकार हैं। सिद्धान्तमहोदधि, तर्करत्न, स्याद्वादवारिधि, न्यायदिवाकर, दार्शनिकशिरोमणि, श्रीमान् पं. माणिकचंदजी न्यायाचार्य महोदयको समाज में कौन नहीं जानता है । वे प्रमुख विद्वानों में गणनीय विद्वान् हैं । उनका विद्वत्त्व प्रखर, सूक्ष्मतत्वस्पर्शी एवं शास्त्रीय - तलस्पर्शी है । हिन्दी टीकामें अनेक गुत्थियोंका उन्होंने सरलता के साथ स्पष्टीकरण किया है । कहीं पर ग्रंथाशय विपरीत हुआ हो, अथवा ग्रंथनिहित तत्त्वोंका यथार्थतापूर्ण विशद अर्थ करनेमें कमी रह गई हो, ऐसा मुझे इस हिन्दी टिका में कहींपर देखने में नहीं आया । इसलिए एक दार्शनिक महान् ग्रंथराजकी इस हिन्दी टीकाको मैं सांगोपांग, एवं महत्वपूर्ण समझता हूं। इस टीकाके करनेमें श्रीमान् न्यायाचार्य महोदयका कुशाग्र-बुद्धिबलपूर्ण परिश्रम अत्यंत सराहनीय है । श्रीविद्वान् संयमी क्षु. सिद्धसागरजी महाराज वार्तिकी हिन्दी टीका मूलसहित सोलापुरसे प्रकाशित हो रही है। इस टीकामें जो विशद स्पष्टीकरण किया गया है, वह पं. माणिकचंद्र न्यायाचार्यकी अपूर्व प्रतिभा और अगाध वित्तका प्रतीक है । हमने इसका दो वार स्वाध्याय किया है, हमें बडी प्रसन्नता हुई । इसमें पण्डितों और त्यागीवर्ग के सीखनेकी बहुतसी सामग्री है । पण्डितवर्य का प्रयास बहुत अंशोंमे सफल हुआ है । जो आत्माके सुखमय मार्गका अनुसरण करना चाहते हैं वे इसे पढकर अवश्य लाभ उठावें । समालोचक बालकी खाल भी निकाल सकता है । किन्तु उससे साहित्य प्रगतिको प्राप्त नहीं 1 होता है। यहां हमने जो कुछ लिखा है वह गुणानुरागसे लिखा है । इसको पढकर आप यह विशेष प्रकार से समझेंगे कि सदूधर्म किसी प्रकारसे भी कष्टप्रद नहीं होता है और रत्नत्रय धर्मसे होनेवाला सुख मोक्षसुखका ही अंश है । अरहंत सच्चा वक्ता है और वाद स्यादूवादरूप होनेसे

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