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Sumati-Jñāna
कात्यायनी के साथ तथा यशोधरा का कात्यायनी के भाई अंजन के साथ हुआ । इनके वंशजों ने कपिलवस्तु तथा देवदह पर शासन किया जिसमे राजा शुद्धोधन भी थे। महावंश में जयसेन से लेकर राहुल तक की वंश-परम्परा मिलती है। आगे चलकर इसमें गौतम, अंगिरस एवं इक्ष्वाकु आदि थे। इस प्रकार शुद्धोधन और सिद्धार्थ की पूरी वंश-परम्परा इक्ष्वाकु परम्परा से सम्बद्ध थी । इसीलिए बौद्ध धर्म एवं दर्शन की पृष्ठभूमि के निर्माण तथा अनेक तत्त्वों के आदान-प्रदान में इस परम्परा का उल्लेखनीय अवदान रहा है। बौद्ध साहित्य में विवरण यह भी स्पष्ट करते हैं कि बुद्धकालीन गणतंत्र शाक्य, मोरिय की शासक वर्ग परम्परा इक्ष्वाकु कुलोत्पन्न थी । पालि परम्परा तो रामग्राम के कोलियों को इक्ष्वाकुवंशीय महासंभव का वंशज तथा व्यघ्घपज्ज गोत्र का खत्तिय (क्षत्रिय) घोषित करती है।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि बौद्ध ग्रंथ सुमंगलविलासिनी और महावंश में कपिलवस्तु के शाक्यों की जो वंशावली दी गई है वह पुराणों में वर्णित वंशावली से मेल खाती है। विष्णु पुराण में तो बुद्धबल से बुद्ध तक की वंशावली दी है। बुद्धचरित में तो अश्वघोष ने शाक्यों के पूर्वजों को 'इक्ष्वाकवों, शुद्धोधन को 'इक्ष्वाकुवंशप्रभवस्य राज्ञः, बुद्ध को 'इक्ष्वाकुकुलप्रदीप' और 'इक्ष्वाकुकुलचन्द्रमा' कहा जाता है। इन उल्लेखों से बुद्ध की इक्ष्वाकु परम्परा स्पष्ट हो जाती है । थेरगाथा में तो शाक्यों को 'भगीरथ' कहा ही गया है।
इस प्रकार वैदिक, पौराणिक एवं श्रमण परम्परा के जैन एवं बौद्ध धर्मों के सम्पूर्ण ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य तथा राजनय परम्पराओं के मूल में इक्ष्वाकु एक ऐसी परम्परा के रूप में रेखांकित होती है जिसने सभी समकालीन तथा उत्तरवर्ती परम्पराओं को प्रवर्धित किया। इससे यह ज्ञात होता है कि भारत की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक संरचना वस्तुतः इक्ष्वाकु परम्परा की देन है। यह परम्परा भारत की राजनीतिक संस्कृति तथा उसके मूल्यों के सृजन और संवहन करने वाली परम्परा रही है। वैदिक परम्परा ने इक्ष्वाकु की राजवंश परम्परा में राजा के सम्मुख राजपद के साथ पृथ्वीपतित्व, प्रजापालकत्व तथा मोक्षप्रद कल्याणकारी जीवन का जो आदर्श रखा वही परवर्ती ऐतिहासिक युगों में भारतीय राजवंशों तथा उनकी चरितार्थता का मानक निरूपित हुआ। वैदिक परम्परा के साथ-साथ जैन परम्परा में स्वयं प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ तथा उनके पुत्र भरत, पार्श्वनाथ, महावीर तथा राजवंशों की परम्परा में इक्ष्वाकुवंशीय मोरिय संतति चन्द्रगुप्त मौर्य तथा कलिंगराज खारवेल के उदाहरण उल्लेखनीय हैं जिन्होनें प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों मानक उपस्थित किये। पूर्वमध्यकाल में भी ऐसे राजवंशों के दृष्टान्त हैं जिन्होनें मुनियों का आदर करते हुए श्रेष्ठ राज्यादर्श सामने रखा। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा भी समादृत रही है। बुद्ध ने स्वयं इक्ष्वाकु परम्परा के राज्यादर्श का अनुगमन किया और मानव जाति के इतिहास में प्रवृत्ति और निवृत्ति का आदर्श रखते हुए चक्रवर्तित्व की परम्परा को सम्पुष्ट किया, साथ ही सम्बोधि और महाकरुणा के कारण राम की परम्परा में अवतारों में परिगणित हुए। यह प्रवृत्ति लोक कल्याणकारी भाव का चूड़ान्त निदर्शन हैं !
इक्ष्वाकुओं की राज्य परम्परा प्रताप, ताप एवं तप की परम्परा रही है। दीप्ति, प्रदीप्ति एवं प्रभा का भाव प्रजावत्सल का मूल अधिष्ठान है। इसीलिए संभवतः सुमंगलविलासिनी" में ओक्काक (इक्ष्वाकु) के नामकरण के संबंध में कहा गया है कि "कथन काल उक्काविये मुखतो प्रभा निच्छरति' अर्थात् उसके उच्चारण के समय मुख से प्रभा निकलने के कारण उसका नाम ओक्काक (इक्ष्वाकु) पड़ा। इस प्रकार वैदिक एवं श्रमण संस्कृति में इक्ष्वाकु एक सशक्त परम्परा रही है। सूर्य से उत्पन्न यह वंश-परम्परा अपने मूलार्थ में ही जागतिक सत्ता नियमन एवं नियंत्रण के लिए ओजस्विता, तेजस्विता तथा संबोधि के भाव का संवहन करती रही है। इसीलिए दोनों ही परम्पराओं में इसके सुन्दर दृष्टान्त दिखाई देते हैं। पारस्परिक आदान-प्रदान, सूर्यप्रभ, पद्मप्रभ जैसी संज्ञाएँ भी इसी परम्परा के प्रकाश का विकीरण हैं। उसके उदाहरण दोनों ही परम्पराओं में विद्यमान हैं ।
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