________________
भगवान महावीर एवं उनके सिद्धांतों की प्रासंगिकता
६०
Jain Education International
छठीं शती ईसा पूर्व में गंगा घाटी में वैदिक कर्मकाण्ड, पुरोहितवाद, यज्ञवाद एवं ब्राह्मणवाद के विरूद्ध एक बौद्धिक चेतना विकसित हुई जिसका नेतृत्व जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी एवं बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध ने किया। यद्यपि महावीर स्वामी एवं महात्मा बुद्ध दोनों लगभग समकालीन थे। दोनों के उत्थान की परिस्थितियाँ भी लगभग समान थीं। दोनों के चिंतन में भी लगभग समानता थी। यहाँ हमारा उद्देश्य है महावीर स्वामी के सामाजिक एवं धार्मिक अवदानों का निरूपण करना । महावीर स्वामी जिस धर्म को लेकर चल रहे थे, जिस धार्मिक मंच से उन्होनें समकालीन समाज को दिशा देने का प्रयत्न किया वह नया नहीं था अपितु इसकी निरंतरता एंव प्राचीनता उनके पूर्व में तेईस तीर्थंकरों के माध्यम से स्पष्ट हो चुकी थी। महावीर का महत्व इसीलिए है कि उन्होनें जैन धर्म को एक व्यापक सामाजिक एवं धार्मिक आधार प्रदान किया। महावीर स्वामी ने वैदिक परंपराओं एवं विचारधाराओं को आंख मूंदकर ज्यों का त्यों न स्वीकार करके तर्क की कसौटी पर परखने की नीति अपनाई। इससे परंपरागत ब्राह्मण संस्कृति एवं श्रमण संस्कृति में वैचारिक संघर्ष प्रारंभ हुआ।
महावीर स्वामी ने अपने मत की स्थापना करते समय उन प्रश्नों के उत्तर तलाश लिए थे जो उनके विरोधियों द्वारा उपस्थित किये जा सकते थे। उन्होनें आत्मा-परमात्मा, जीव जगत तथा मोक्ष से संबंधित अवधारणाओं की समकालीन सामाजिक परिप्रेक्ष्य में व्याख्या की। उन्होनें इस तथ्य को समायोजित करने का प्रयास किया कि वैदिक विचारधारा उनके अनुकूल नहीं थी ।
छठीं शताब्दी ईसा पूर्व में द्वितीय नगरीय क्रान्ति एवं लौह प्रौद्योगिकी के विकास से कृषि के औजारीकरण तथा व्यापार-वाणिज्य की प्रगति से आर्थिक समीकरण बदले । कृषि कार्य के लिए पशुओं का महत्व बढ़ा। दूसरी ओर जनसाधारण का विशाल समूह मोक्ष प्राप्ति की इच्छा से तड़प रहा था किन्तु अर्थाभाव के कारण वैदिक परंपरा के खर्चीले माध्यम से मोक्ष प्राप्ति में असमर्थ था। ऐसी स्थिति में महावीर स्वामी ने जब अहिंसा के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया
For Private & Personal Use Only
डॉ. एस. एम. त्रिपाठी
www.jainelibrary.org