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Sumati-Jñāna
कमण्डलु उनके सामने रखे हैं। श्राविकाओं के हाथ में कमलपुष्प जैसी सामग्री दिखायी गयी है । पुनः दो अर्द्धस्तम्भों के मध्य स्थापना और उसके पाश्र्वों में एक-एक कमण्डलु दिखाया गया है। इसके बाद पूर्व की भांति चार आर्यिकाओं एवं श्राविकाओं (हाथ में नारियल जैसी वस्तु लिए) को विनयपूर्वक झुके हुए दिखाया गया है। इन सभी श्राविकाओं तथा आर्यिकाओं के शारीरिक एवं भावात्मक स्वरूप में शिल्पी ने श्रद्धाभाव को जीवन्त कर दिया है। आर्यिकाओं के अनन्तर एक अर्द्धस्तम्भ के अन्तर पर पुनः चार कमण्डलु रखे हैं जिनके अधिकारी साघु ऊपर की पंक्ति में अध्ययनरत हैं। ऊपर की सभी आकृतियों के मस्तक एवं हाथ के कुछ भाग खंडित हैं। मध्य में आचार्य की भी 'आकृतियां उकेरी हैं। आचार्य बायें हाथ में पुस्तक और दायां हाथ घुटने पर रखा है। आचार्य के पाश्र्वों में उपाध्याय एवं चार साधुओं की आकृतियाँ आचार्य की ओर उन्मुख हैं। सभी आकृतियाँ आचार्य से छोटी तथा मयूरपीचिका सहित उकेरी हैं। "
देवगढ़ सारस्वत साधना का केन्द्र था, इसमें कोई संशय नहीं है क्योंकि यहाँ से हमें आचार्य एवं उपाध्यायों के अध्ययन, अध्यापन एवं तत्व - चर्चा में संलग्न होने जैसे दृश्य प्राप्त होते हैं । देवगढ़ के अभिलेखों से भी उनके महत्व की पुष्टि होती है। जिनवाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती का एकल तथा त्रितीर्थी मूर्ति में जिनों के साथ रूपायन भी उपरोक्त मान्यता का बल देता है । देवगढ़ की कला निर्माण में नूतन सर्जनाओं और जिनों एवं अन्य देव-स्वरूपों के मूल में निश्चित ही आचार्यों एवं उपाध्यायों की प्रेरणा एवं संरक्षण रहा है। देवगढ़ एक प्रमुख जैन शिक्षा केन्द्र भी रहा है जहाँ आध्यात्मिक ज्ञान से लेकर मूर्ति एवं मंदिर निर्माण की भी शिक्षा आचार्य एवं उपाध्यायों के निर्देशन में लोगों को प्राप्त हो रही थी ।
आज भी आचार्यों एवं उपाध्यायों की प्रेरणा एवं निर्देशन में नवीन मंदिर एवं मूर्तियों का निर्माण तथा प्राचीन कला वैभव के संरक्षण का कार्य हो रहा है जो परम्परा के निर्वाध गति से चलने का परिचायक है।
पाद टिप्पणी
१. तिवारी, एम. एन. पी. एवं सिन्हा, एस. एस., जैन कला-तीर्थ देवगढ़, २००२, पृ. ३ (जै. क. ती. दे.) ।
:
२. वही, पृ. ४ ।
३. वही, पृ. ११४ ।
४. वही, पृ. ३ ।
५. वही, पृ. ५।
६. वही, पृ. १४६ ।
७. जैन, भागचन्द्र, देवगढ़ की जैन कला (एक सांस्कृतिक अध्ययन), दिल्ली, १६७४, पृ. १४६-४४ ।
८. वही, पृ. १५३-५६ ।
६. वही, पृ. ४ ।
१०. जै. क. ती. दे., पृ. ११६ ।
११. वही, ११८ - २० ।
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