Book Title: Sumati Jnana
Author(s): Shivkant Dwivedi, Navneet Jain
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 418
________________ प्राचीन बिहार में जैन धर्म-कलावशेषीय विश्लेषण 393 कला के मध्य संक्रमण के उदाहरण के रूप में स्वीकार किया है।" संक्रमण की यह स्थिति आसन के अंकन की शैली से स्पष्टतः चिह्नित की जा सकती है। इसमें आसन को उर्ध्वमुखी कमल पंखुड़ियों की एक पंक्ति के साथ प्रदर्शित किया गया है। गुप्तकाल तक आसन में इस प्रकार के कमल का अंकन प्रायः नगण्य था। मध्यकाल में उर्ध्व एवं अधोमुखी दोनों प्रकार की पंखुड़ियों का अंकन होने लगा था। - इसके अतिरिक्त सोनभंडार के मंदिर के मर्भग्रह में पार्श्वनाथ, महावीर, सुव्रतनाथ, जैन युगल आदि प्रतिमाएं भी रखी हुई हैं, परन्तु वे अन्यन्त भग्न अवस्था में हैं। मुनिसुव्रत प्रतिमा की पादपीठिका पर शासनदेवी बहुरूपिणी शयितावस्था में प्रदर्शित हैं। इस प्रकार का अंकन सर्वथा नूतन है जो अन्यत्र नहीं प्राप्त होता है। उदयगिरि की पहाड़ी पर नवनिर्मित एक जैन मंदिर में भी पार्श्वनाथ की एक प्राचीन प्रतिमा विराजमान है। इसकी पादपीठिका पर एक अभिलेख उत्कीर्ण है जो अधिकांशतः नष्ट हो चुका है। अक्षरों के आधार पर अनुमान किया जा सकता है कि यह प्रतिमा नवीं शती ई. में निर्मित हुई होगी। इसमें सप्तफणी नाग का अंकन अत्यन्त अभिराम है। मुजफ्फपुर से लगभग २२ मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित बसाढ़ नामक अत्यन्त महत्वपूर्ण पुरास्थल है। यहाँ स्थित ध्वंसावशेषों का समीकरण प्रसिद्ध प्राचीन नगरी वैशाली से किया गया है। जैन परम्परा के अनुसार महावीर का जन्म कुण्डग्राम में हुआ था। इसी के समीप वणियग्राम था। बनिया के रूप में वणियग्राम की स्मृति आज भी अक्षुण्ण है। किन्तु कुण्डग्राम को चिन्हित करने वाला कोई भी स्थान बसाढ़ और उसके आसपास नहीं विद्यमान है। वसुकुण्ड को कुण्डग्राम का अपभ्रंश मानना क्लिष्ट कल्पना अधिक है। बनिया नामक स्थान से दो तीर्थकर प्रतिमाओं की प्राप्ति का उल्लेख स्मिथ ने किया है, परन्तु सम्प्रति ये प्रतिमाएं वहां पर नहीं हैं। ब्लाख ने भी इनका कोई उल्लेख नहीं किया है जिससे स्पष्ट है कि सन् १६०३ के पूर्व ही वे प्रतिमाएं अन्यत्र चली गयी थीं। वसुकुण्ड जिसकी पहचान हार्नले ने कुण्डग्राम के रूप में की थी, वहां से भी कोई जैन अवशेष नहीं प्राप्त हुए हैं।" नालन्दा जो बृहद् बौद्ध केन्द्र था, से भी कतिपय जैन प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं। यहाँ से ज्ञात ऋषभनाथ की दो प्रतिमाओं में उन्हें ध्यानस्थ पद्मासन मुद्रा में लांछन वृषभ के साथ दिखाया गया है। एक प्रतिमा में भरत और बाहुबली का भी अंकन है। एक अन्य फलक में यक्ष गोमेध एवं यक्षी अम्बिका का संयुक्त अंकन है। इसमें गोमेध का दायां हाथ वरद मुद्रा में और बायां शयनासन रूप में प्रदर्शित है। उनके पार्श्व में यक्षी अम्बिका है जिसका दायां हाथ वरद मुद्रा में और बायें हाथ से वाम जंघा पर बैठे शिशु को पकड़े हुए है। इन दोनों आकृतियों के बीच में एक वृक्ष प्रदर्शित है जिसके शीर्ष पर जिन आकृति ध्यानस्थ पद्मासन मुद्रा में है। पीठिका पर उपासकों की आकृतियाँ विद्यमान हैं। मल्लिनाथ की भी एक प्रतिमा नालन्दा से विदित है। यह समपादस्थानक मुद्रा में प्रदर्शित की गई है। इसमें जिन अधो एवं उर्ध्वमुखी पंखुड़ियों से युक्त कमलासन पर विराजमान हैं। नीचे मल्लिनाथ का लांछन कलश प्रदर्शित है। इन प्रतिमाओं का समय हवीं शती ई. स्वीकार किया गया है। यक्षी अम्बिका की भी एक प्रतिमा मिली है जो सम्प्रति राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में संग्रहीत है। अर्द्धपर्यकासन मुद्रा में द्विभुजी अम्बिका के दाहिने हाथ में आम्रगुच्छ और बायें हाथ में वाम जंघा पर बैठा शिशु प्रदर्शित है। इसमें अम्बिका के वाहन सिंह का अंकन नहीं मिलता है। कनिंघम ने नालन्दा में एक जैन मंदिर होने की संभावना का भी उल्लेख किया है और उसकी तिथि ५वीं शती ई. स्वीकार की है। वर्तमान आरा शहर से लगभग ६ मील दक्षिण-पश्चिम में मसार नामक स्थल से भी कतिपय जैन अवशेष प्रकाश में आये हैं। यहाँ से एक जैन मंदिर के भग्नावशेष विदित हैं जिसमें जैन मूर्तियां रखी हैं। इन सभी मूर्तियों के पादपीठ पर वि. सं. १४४३ (१३८६ ई.) तिथियुक्त अभिलेख हैं। अभिलेख में सूचना है कि महासन के शासक नाथदेव के समय में ये मूर्तियां पार्श्वनाथ मंदिर को समर्पित की गयी थीं। ये मूर्तियां आदिनाथ, अजित, संभवनाथ और नेमिनाथ की हैं।२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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