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प्राचीन बिहार में जैन धर्म-कलावशेषीय विश्लेषण
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प्रस्तुत लेख में कलापरक अवशेषों के आधार पर बिहार में प्राचीन काल में जैन धर्म की विद्यमानता एवं व्यापकता पर प्रकाश डालने का अभिमत प्रयास किया गया है।
जैन धर्म से संबंधित कलापरकं प्रमाणों में सर्वप्रथम उन दो प्रतिमाओं का उल्लेख किया जा सकता है जो लोहानीपुर से प्राप्त हुईं थीं और सम्प्रति पटना संग्रहालय में संग्रहीत हैं। शीशविहीन केवल कबन्ध भाग तक सुरक्षित एक विशालकाय प्रतिमा पर मौर्यकालीन चिकनी पॉलिश का प्रयोग किया गया है जबकि दूसरे छोटे कबन्ध पर मौर्यकालीन पॉलिश नहीं है।' खुदाई में ये दोनों प्रतिमाएं एक ही स्तर से प्राप्त हुयी थीं और इनके साथ चांदी का एक आहत सिक्का भी प्राप्त हुआ था। के. पी. जायसवाल ने पॉलिशयुक्त कबन्ध को मौर्यकालीन और पॉलिश रहित कबन्ध को शुंगकाल या उसके बाद का स्वीकार किया है। शैली की दृष्टि से ये मूर्तियां यक्ष मूर्तियों के समकक्ष प्रतीत होती हैं। ये दोनों ही दिगम्बर संप्रदाय से संबंधित हैं।
प्राचीन राजगृह (वर्तमान राजगिर) नामक स्थान जैनों का प्रसिद्ध केन्द्र है। यहाँ से भी अनेक जैन अवशेष प्राप्त हुए हैं। वैभारगिरि पर निर्मित जैन मंदिर जो अब पूर्णतया नष्ट हो चुका है, और सोन भंडार की दो गुफाएं विशेष रूप से विचारणीय हैं। वैभारगिरि स्थित मंदिर के गर्भग्रह का प्रवेश द्वार पूर्व दिशा में था। मंदिर से संलग्न छोटी-बड़ी कोठरियाँ भी निर्मित हुई थीं। अत्यन्त भग्न कुछ जैन प्रतिमाएं भी प्राप्त हुई थीं जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ की प्रतिमा है। काले बेसाल्ट प्रस्तर पर निर्मित इस प्रतिमा पर एक लेख "महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त उत्कीर्ण है। संभवतः यह गुप्त शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य को द्योतित करता है। इस प्रतिमा में नेमिनाथ ध्यान मुद्रा में सिंहासनासीन हैं। सिंहासन के मध्य में एक स्थानक पुरूष आकृति प्रदर्शित है जिसे आर. पी. चन्दा ने अरिष्टनेमि परन्तु यू. पी. शाह ने चक्रपुरूष के रूप में स्वीकार किया है।
सोन भंडार की दो गुफाएं जैन धर्म से संबंधित इनमें एक गुफा कालान्तर में वैष्णवों द्वारा अधिगृहित कर ली गयी। दूसरी गुफा के प्रवेश द्वार से संलग्न दीवाल पर एक ओर पाँच और दूसरी ओर एक जिन आकृति उत्कीर्ण हैं | पॉच आकृतियों में से प्रथम दो छठें तीर्थंकर पद्मप्रभ, तीसरी आकृति दूसरे तीर्थकर अजितनाथ और अंतिम दो चौबीसवें तीर्थंकर महावीर की हैं। इस सभी आकृतियों का उत्कीर्णन एक जैसा है। परिकर में दोनों ओर उड़ते हुए मालाघर, चौरीधारी परिचारक और दो-दो जिन आकृतियां ध्यान मुद्रा में प्रदर्शित हैं। पद्मप्रभ का लांछन कमल, अजितनाथ का गज और दोनों हाथियों के मध्य चक्र तथा महावीर का लांछन सिंह भी उत्कीर्ण है। दूसरी ओर की आकृति के प्रभामण्डल पर कल्पवृक्ष अंकित है।" तीर्थंकर प्रतिमाओं के मस्तक पर या प्रभामंडल के शीर्ष पर कल्पवृक्ष या चैत्यवृक्षों का अंकन गुप्तकाल के पहले नहीं प्राप्त होता है। जैन परम्परा में अनेक वृक्षों का अतिशय स्वीकार किया गया है। प्रत्येक तीर्थंकर के साथ कोई न कोई वृक्ष निश्चित रूप से संम्बद्ध है। यद्यपि बाद में वृक्ष प्रतीक जैन कला में अधिक महत्वपूर्ण नहीं रह गये।” एक दीवाल पर तीन खड्गासन जिन आकृतियां उत्कीर्ण हैं। एक के साथ शंख का अंकन किया गया है जिसके आधार पर इसे अरिष्टनेमि या नेमिनाथ के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। इसमें चामरधारिणी परिचारिका अंकित हैं।” तीर्थंकर प्रतिमाओं के साथ मालाधर, चामरघर, चैत्यवृक्ष आदि के अंकन से यह अनुमान सहज प्रतीत होता है कि ये आकृतियां गुप्त काल से पूर्ववर्ती नहीं हैं। सोनभंडार की जिस गुफा में मौर्यकालीन पॉलिश का प्रयोग मिलता है, उसमें एक लेख उत्कीर्ण है। इस लेख में मुनि वज्रदेव का नाम मिलता है। यह लेख संस्कृत भाषा में इस प्रकार निबद्ध है"
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निर्वाणलाभायतपस्वियोग्ये शुभे गृहे अर्हन्प्रतिमाप्रतिष्ठे ।
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