Book Title: Sumati Jnana
Author(s): Shivkant Dwivedi, Navneet Jain
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 417
________________ 392 Sumati-Jnana आचार्य रतन मुनि वजदेव विमुक्तये अकल्पयन्यदुग्रतेजः। कनिंघम ने इस लेख का समय दूसरी शती ई. स्वीकार किया है। अन्य विद्वान इसे चौथी शती ई. का मानते हैं। यू. पी. शाह के अनुसार वज्रदेव नामक दो जैनाचार्यों का उल्लेख जैन परम्परा में प्राप्त होता है। एक का उल्लेख आवश्यक नियुक्तिसूत्र में और दूसरे का त्रिलोकप्रज्ञप्ति में मिलता है। शाह के अनुसार सोनभंडार की गुफा में जिस वजदेव का उल्लेख हुआ है, वे श्वेतांबर संप्रदाय के थे और उनकी मृत्यु महावीर के निर्वाण के पाँच सौ चौरासी (५८४) वर्ष पश्चात् हुई थी।" इस आधार पर अभिलेख को प्रथम शती ई. में रखा जा सकता है। बेंगलर ने यह संभावना व्यक्त की है कि पहले यह एक प्राकृतिक गुफा थी जिसका उपयोग बौद्ध भिक्षु करते थे। कालान्तर में मौर्य शासक अशोक के समय में पत्थरों को हटाकर इसे नवीन स्वरूप प्रदान किया गया और नागार्जुन तथा बराबर पहाड़ी पर स्थित गुफाओं की भांति इसे आजीविकों का समर्पित किया गया।'६ ___ गुप्तकाल में राजगृह और उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में जैन धर्म की प्रतिष्ठा का प्रमाण चीनी यात्री हवेनसांग के यात्रा विवरण से भी प्राप्त होता है। वेनसांग ने इस पी-पु-लो (Pi-pu-lo) कहा है और यह उल्लेख किया है कि इस क्षेत्र में नग्न साधु रहते थे जो सूर्य उदय से अस्त तक तप में संलग्न रहकर कठोर जीवन व्यतीत करते थे। यहाँ स्थित पाँचवी शती ई. के जैन विहार के संदर्भ में गुप्त संवत् १५६ के एक लेख से सूचना मिलती है जिसका प्रधान गुहनन्दिन श्रमणाचार्य था। यह काशी के पंचस्तूपनिकाय से संबंधित था। बाद में बौद्धों ने इसे अधिगृहित कर लिया। परन्तु विहार का मूलस्वरूप सर्वतोभद्र बना रहा। __ बिहार के क्षेत्र में गुप्तकाल और उसके निकटवर्ती शताब्दियों में जैन धर्म की व्यापकता के प्रभावस्वरूप उन कांस्य प्रतिमाओं का उल्लेख किया जा सकता है जो भोजपुर जिले के चौसा नामक स्थल से प्राप्त हुई हैं। ये कांस्य प्रतिमाएं सम्प्रति पटना संग्रहालय में सुरक्षित हैं। इनमें दो आठवें जिन चन्द्रप्रभ की हैं और इनमें प्रभामण्डल के ऊपरी भाग पर अर्द्धचन्द्र की आकृति बनी हुई है। दो प्रतिमाएं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की हैं। शेष दो की पहचान लांछन के अभाव में संभव नहीं है। इन कांस्य प्रतिमाओं के निर्माण में समरूपता दिखायी देती है। सभी ध्यान मुद्रा में उर्ध्व एवं अधोमुखी कमल पंखुड़ियों पर आसीन हैं। वक्षस्थल पर श्रीवत्स का अंकन है। शिरस्वक्र या प्रभामण्डल है। ये दो स्तम्भों पर आधारित हैं और स्तम्भों की उर्ध्वमाग में जिव्हा बाहर निकाले मकरमुखों का अंकन है। ऐसा प्रतीत होता है कि जो अलंकरण अभिप्राय बौद्ध स्तूपों में वेदिका या तोरण द्वारों में प्रचलित थे, उनका अनुकरण जैनों ने भी किया। ये सभी कांस्य प्रतिमाएं परवर्ती गुप्तकालीन कला शैली की परिचायक हैं। एक कांस्य फलक में अशोकवृक्ष के साथ धर्मचक्र का प्रदर्शन है। जिस प्रकार बौद्धों में धर्म चक्र की महत्ता थी, जैनों ने भी उसे स्वीकार कर लिया। जैन प्रतिमाओं के सिंहासन या पादपीठिका पर लांछनों के मध्य में चक्र का निरूपण भी जैन कला पर बौद्ध कला का प्रभाव है। अशोक वृक्ष का संबंध चौदहवें तीर्थंकर अनन्तनाथ से है। अशोकवृक्ष और धर्मचक्र का एक ही कांस्य फलक में अंकन तीर्थंकर की प्रतीकोपासना का महत्वपूर्ण उदाहरण है। गुप्तकालीन इन अवशेषों के अलावा वीं शती ई. की कुछ जैन प्रतिमाएं राजगिर से मिली हैं। ध्यान मुद्रा में आसीन ऋषभनाथ की एक प्रतिमा विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसमें जिन जटामुकुट के साथ प्रदर्शित हैं। पादपीठिका पर दो वृषभ और चक्र है। इस पर वीं शती ई. की लिपि में एक अभिलेख भी उत्कीर्ण है जिसका पाठ इस प्रकार है आचार्य वसन्तनन्दि! दे धर्मो यः (देय धर्मोऽय) अर्थात् आचार्य वसन्तनन्दिन ने इस प्रतिमा को दानस्वरूप दिया था। रामप्रसाद चन्दा ने इसे गुप्त काल और पाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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