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Sumati-Jñāna गहन धार्मिक–सामाजिक संदर्भ रहा है। त्याग और साधना के मार्ग पर चलने के कारण ही जैन समाज में भरत - बाहुबली को जिनों के समान प्रतिष्ठा प्रदान की गयी तथा जिनवाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती (श्रुत देवता) को भी जिनों के साथ त्रितीर्थी मूर्ति में रूपायित किया गया । उपर्युक्त सभी विशेषताएं एवं मूर्तिगत विकास आचार्य एवं उपाध्यायों के निर्देशन में ही संभव हो सका। प्रस्तुत आलेख में देवगढ़ के आचार्यों एवं उपाध्यायों के रूपायन एवं उनके योगदानों की चर्चा ही हमारा अभीष्ट है।
जैन आचार्यों एवं उपाध्यायों की साधना-स्थली होने के कारण ही देवगढ़ में श्रावक-श्राविकाओं तथा जैन धर्मानुरागी व्यापारियों का आगमन होता रहा होगा। देवगढ़ में न केवल अन्य किसी भी क्षेत्र की तुलना में आचार्यों एवं उपाध्यायों की अधिक मूर्तियां बनीं, वरन् उन्हें जिन मूर्तियों के साथ भी निरूपित किया गया। कभी-कभी तो चौमुखी या प्रतिमा - सर्वतोभद्रिका में भी तीन ओर जिनों की आकृतियाँ बनी हैं जबकि एक ओर आचार्य या उपाध्याय की आकृति निरूपित है।
देवगढ़ स्पष्टतः सामूहिक सामाजिक चेतना एवं क्रियाशीलता तथा आचार्यों के कुशल दिशा-निर्देश का एक जीता-जागता उदाहरण है जो ओसियां, खजुराहो, एलोरा, भुवनेश्वर एवं मथुरा जैसे कला - तीर्थों से सर्वथा भिन्न है। देवगढ़ मे दिगम्बर सम्प्रदाय का चतुर्विध जैन संघ (साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका ) संगठित एवं प्रभावशाली था जिसने परम्परा की लक्ष्मण-रेखा में रहते हुए नवीन प्रयोगों को प्रोत्साहित किया । मूर्तियों और अभिलेखों से ज्ञात होता है कि श्रावकों पर आचार्य एवं उपाध्याय वर्ग का अच्छा प्रभाव था । देवगढ़ की मूर्तियों में स्थान-स्थान पर श्रावक-श्राविकाओं को साधु-साध्विओं एवं आचार्य - उपाध्यायों के समक्ष विनयावनत् या उनकी उपासना करते दिखाया गया है। पुस्तकधारी उपाध्यायों का देवगढ़ में विशेष प्रभाव था जो सर्वाधिक सक्रिय और कर्त्तव्यनिष्ठ थे। सारस्वत साधना का केन्द्र होने के कारण ही देवगढ़ में उपाध्यायों ( मट्टारक) द्वारा साधुओं एवं श्रावकों को उपदेश अथवा शिक्षा देने का दृश्यांकन देवगढ़ की कला में प्रभूत संख्या में उपलब्ध है।
देवगढ़ से लगभग ३०० छोटे-बड़े अभिलेख प्राप्त हुए हैं। प्राप्त अभिलेखों से देवगढ़ के इतिहास, संस्कृति और कला पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। इन लेखों में प्रतिहार शासक भोजदेव तथा विष्णुराम पचिन्द, राजपाल, उदयपाल, देव जैसे शासकों एवं जैनाचार्यों, उपाध्यायों, साधु-साध्वियों, प्रतिष्ठाचार्यों एवं संघाधिपति तथा श्रावक-श्राविकाओं के नामोल्लेख मिलते हैं। इनसे स्पष्टतः इस बात के संकेत मिलते हैं कि देवगढ़ में वर्ग एवं जाति भेद रहित जैन समाज तथा चतुर्विध संघ जैन मंदिर और मूर्तियों के निर्माण कार्य में समवेत रूप से संलग्न था । ' यहाँ पर उन सभी का वर्णन संभव नहीं है, अतः हम अभिलेखों में उल्लिखित कुछ आचार्यों एवं उपाध्यायों के नाम ही यहाँ दे रहे हैं। इन अभिलेखों में आचार्यों एवं उपाध्यायों की वंशावली के अतिरिक्त मूर्ति निर्माण, संघ आदि का विस्तृत वर्णन मिलता है। देवगढ़ के अभिलेखों में कमलदेव, श्रीदेव, रत्नकीर्ति, देवेन्द्रकीर्ति, त्रिभुवनकीर्ति, यशस्कीर्त्याचार्य, जयकीर्त्याचार्य, कनकचन्द्रदेव आचार्य, हेमचन्द्रदेव, ललितकीर्ति, पद्मनंदी, शुभचन्द्र, कीर्त्याचार्य, नागसेनाचार्य, माघनन्दी, सहस्रकीर्ति आदि अनेक आचार्यों एवं उपाध्यायों के धार्मिक कृत्यों का संक्षिप्त तो कभी विस्तृत वर्णन मिलता है।
देवगढ़ से प्राप्त मूर्तिलेखों में विभिन्न आचार्यों की प्रेरणा से जिनालय एवं मूर्ति निर्माण के प्रसंग मिलते हैं, यथा-आचार्य शुभचन्द्र की प्रेरणा से होली नामक श्रावक द्वारा जिनालय का निर्माण, मंदिर संख्या ६ की तीर्थंकर मूर्ति का चन्द्रकीर्ति द्वारा अर्पण, मंदिर संख्या १२ के महामण्डप के स्तम्भ की चक्रेश्वरी मूर्ति की स्थापना कमलदेवाचार्य एवं श्रीदेव द्वारा, मंदिर संख्या १६ की सरस्वती मूर्ति तथा मंदिर संख्या २० की शान्तिनाथ मूर्ति (कायोत्सर्ग मुद्रा में) का निर्माण त्रिभुवनकीर्ति की प्रेरणा से, आचार्य कोकनन्दी के शिष्य गुणनन्दी द्वारा तीर्थंकर चन्द्रप्रभ एवं मंदिर के मण्डप
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