Book Title: Sumati Jnana
Author(s): Shivkant Dwivedi, Navneet Jain
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 411
________________ 386 Sumati-Jñāna और पशुबलि का विरोध करते हुए जनता को समझाया कि मोक्ष प्राप्ति के लिए कर्मकाण्डीय एवं खर्चीले यज्ञों की आवश्यकता नहीं है अपितु त्रिरत्न एवं पंच महाव्रतों के परिपालन से व्यक्ति सांसारिक आवागमन के बन्धन से मुक्त सकता है तो जनसाधारण में उनकी लोकप्रियता बढ़ी। हो महावीर स्वामी के सामाजिक दर्शन का एक महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि उन्होनें दलित एवं शोषित वर्ग को ऊपर उठाने का प्रयत्न किया। उन्होनें जातिवाद व अस्पृश्यता का विरोध करते हुए कर्म सिद्धांत का प्रतिपादन किया और कहा कि व्यक्ति कर्म के अनुसार ब्राह्मण एवं शूद्र हो सकता है। उन्होनें समाज के उन वर्गों की ओर ध्यान नहीं दिया जो पहले से ही वर्ण व्यवस्था के माध्यम से अपना प्रभाव जमा चुके थे अपितु उन्होनें शोषित दलित व पिछड़े वर्गों की ओर अधिक ध्यान दिया। इससे स्तरीकृत सामाजिक व्यवस्था में इन वर्गों को भी अपना स्तर सुधारने का मौका मिला। यह भी ध्यान रखना है कि महावीर स्वामी ने अपने धार्मिक संघों के माध्यम से भी दलितों की स्थिति सुधारने का प्रयत्न किया। उनके धार्मिक संघ जनतांत्रिक प्रणाली पर आधारित थे। स्वेच्छा से आने वालों के लिए उनके संघ के द्वार हमेशा खुले थे। ये संघ जनशिक्षा का कार्य भी करते थे। वस्तुतः देखा जाये तो महावीर स्वामी का उद्देश्य आर्य समाज के मूल ढांचे को तोड़ना नहीं था, वरन् वे केवल उसमें परिवर्तन लाना चाहते थे। यही कारण था कि उन्होनें भारतीय समाज की वर्ण-व्यवस्था का विरोध नहीं किया । इससे यह पता चलता है कि महावीर में भी कहीं न कहीं वैदिक परम्परा के प्रति आस्था थी । इस संबंध में आचार्य रामधारी सिंह दिनकर ने तो स्पष्ट शब्दों में कहा है कि जैन धर्म वैदिक धर्म से निकला था, इसका रूप चाहे जो भी रहा हो किन्तु उसका लक्ष्य वैदिक धर्मों में सुधार था। लेखक का यह भी मानना है कि यज्ञवाद तथा पुरोहितवाद की अवहेलना जैन धर्म का मौलिक सिद्धांत नहीं था अपितु इसकी शुरूवात उपनिषदों के समय हो गयी थी । महावीर स्वामी का मार्ग सामाजिक समन्वय एवं अनुकूलन का था। उन्होनें श्रमण विचारधारा पर जोर देते हुए सन्यास के मार्ग को उत्तम बताया किन्तु गृहस्थ आश्रम का विरोध नहीं किया। उन्होनें कहा कि गृहस्थ जीवन का निर्वाह करने वाली जनता के लिए भी मोक्ष या मुक्ति संभव है। इसके लिए उन्होनें पंचाणुव्रत के पालन पर जोर दिया। संभव है कि महावीर के अहिंसावाद के कारण ही जैन मतानुयाइयों ने कृषि अर्थव्यवस्था से अपने को पृथक कर लिया और बाजारपरक अर्थप्रणाली को अपना लिया। इसका परिणाम यह हुआ कि जैन धर्म में वाणिज्य पर आधारित अनुयायियों की संख्या अत्याधिक है। जैन धर्म अत्यन्त उन्नत एवं मनुष्य के लिए कल्याणकारी धर्म था। लोक कल्याण की भावना की दृष्टि से यह आज भी प्रासंगिक है। जैन धर्म ने अन्य धर्मों से काफी कुछ ग्रहण किया परन्तु ऐसा नहीं है जैन धर्म ने इतर धर्मों को प्रभावित नहीं किया । वैष्णव धर्म ने महावीर के अनेक उपदेशों को अपने धर्म में स्थान दिया। जैन एवं वैष्णव धर्म में प्रायोगिक दृष्टि से भेद करना अब आसान नहीं है। महावीर स्वामी के उपदेशों का प्रभाव हिन्दुत्व पर इस रूप में देखा जा सकता है कि बाद के कालों में हिन्दुत्व में अहिंसा को ऊंचा स्थान दिया गया और बलिप्रथा को नकार दिया गया। आधुनिक काल में महात्मा गांधी ने हिन्दुत्व के वैष्णव मत के अनुयायी बने। लेकिन उन्होनें जैन धर्म के अनेक सिद्धांतों को अपने जीवन का आदर्श बनाया और उन्हीं सिद्धांतों को लेकर स्वतंत्रता संघर्ष में आगे बढ़े और यही स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी सफलता के अस्त्र बनें। अहिंसा, सत्य, प्रेम, उपवास, अनशन तथा भौतिक भोग से बचने की प्रवृत्ति उन्होनें जैन धर्म से ही ग्रहण की। यहां तक कि विदेश गमन से पूर्व जैन धर्म के प्रभावस्वरूप उन्होनें मांस-मदिरा का उपयोग न करने का प्रण लिया। सत्य पथ पर आजीवन बने रहने के उनके प्रयास को उनकी पुस्तक 'द एक्सपेरिमेंट विथ ट्रुथ' के माध्यम से समझा जा सकता है। आज भी विश्व में हिंसा एवं आतंकवाद की बढ़ती हुई प्रवृत्तियों पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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