Book Title: Sumati Jnana
Author(s): Shivkant Dwivedi, Navneet Jain
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 404
________________ जैन दर्शन में रंगों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण 379 संवेदनाओं के द्वारा विदित हो जाता है। लेश्या प्रतिपल हृदय में उत्पन्न होने वाले भावों का यथार्थ अंकन व मूल्यांकन करने वाला मापदण्ड है। रंग और विचारों के सघन संबंधों पर वर्तमान में विज्ञान ने भी अपनी मुहर लगा दी है। प्राचीन समय से आध्यात्मिक मान्यता रही है कि महापुरूषों के सिर के पीछे एक प्रकाशवलय यानि आभामंडल होता है जिसे आज विज्ञान औरा' कहकर प्रत्येक व्यक्ति के सिर पीछे विद्यमान मानता है। भौतिक विज्ञान के अनुसार इस औरा की भिन्नता उसमें पाये जाने वाले रंगों के आधार पर निश्चित होती है। ये रंग ही व्यक्ति की मनोवृत्ति का परिचय देते हैं और यही भिन्न-भिन्न रंग व्यक्ति विशेष की मनःस्थिति के आधार पर अनुकूल या प्रतिकूल असर डालते हैं। भाव मूर्त स्वरूप होते हैं जब वे मन में उत्पन्न होते हैं तो तरंगे उत्पन्न करते हैं, वही तरंगे परमाणु का रूप धारण कर गति उत्पन्न करती हैं, जितने तीव्र भाव होते हैं उतनी ही उनकी गति तीव्र होती है और उसी मात्रा में भावात्मक प्रतीति होती जाती है। हम जो भी भाव या विचार मन में लाते हैं उसका आभामंडल चारों ओर तैयार हो जाता है। इसी आभामंडल से हम एक-दूसरे से संप्रेषित होते हैं। इसी संप्रेषण को विज्ञान टेलीपेथी कहता है। आज रंग चिकित्सा के क्षेत्र में भी अनेक शोध-प्रयोगों से मनुष्यों के चित्त व शरीर की व्याधियों के उपचार कर अभूतपूर्व उपलब्धियां अर्जित की जा रही हैं। यही नहीं, ज्योर्तिविज्ञान में भी ग्रह-नक्षत्रों की शांति हेतु विभिन्न रंगों के रत्नों का प्रभाव तथा वास्तुशास्त्र में भी गृह व गृहस्थ की समृद्धि हेतु रंगों के चयन का महत्व सर्वविदित है। __ आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो जैन मतानुसार जीव अपने मोह, अंधकार, अज्ञान के कारण निरन्तर कर्मों का आप्रव व बंध करता है और इस बंध के कारण अनंत प्रवाह को रोकने के उपाय संवर या संवरण (जो वरण करने योग्य हो) को अपनाता है। व्रत समिति, गुप्ति, धर्म अनुप्रेक्षा, जय परीषह व चारित्र इन संवर के सात साधनों के द्वारा मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर होता है। जैन मत में कहा गया है, सम्यक् दर्शन यानि तत्वों क यथार्थ स्वरूप की श्रद्धा; सम्यक ज्ञान यानि वास्तविक बोध तथा सम्यक् चारित्र यानि आत्मा के कल्याण हेतु किया जाने वाला सदाचरण। अतः सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान व सम्यक् चारित्र की संयुक्ति ही मोक्ष का मार्ग है। लेकिन संवरण के साधनों का अनुसरण व सम्यकत्व की संयुक्ति का अनुकरण लेश्या रूपी अवरोधों को हटाये बिना संभव नहीं है। आत्मा पर पड़े इस अंधकार के पट को हटाकर ही प्रकाश की ओर जाया जा सकता है। अतः लेश्या का ज्ञान परम आवश्यक है। सामाजिक दृष्टि से देखें तो वर्तमान परिदृश्य में हिंसा, आतंकवाद, अराजकता, बेईमानी, स्वार्थ, वैमनस्य का सर्वत्र साम्राज्य है। निश्चय ही यह अशुभ लेश्याओं का परिणाम है। यदि हम काली, नीली व कपोती लेश्याओं से बचकर रहे तो शेष रहेगी प्रेम, करूणा, शांति परोपकार जैसे मानवीय मूल्यों का दिग्दर्शिका पीत, पद्म व शुक्ल लेश्याएं जो समाज में शांति, सौहार्द्र, सौमनस्य को स्थापित कर मानवता को रक्षित करेंगी! निश्चय ही जैन दर्शन का रंग आधारित मनोविश्लेषण लेश्या विवेचन महत्वपूर्ण है जो आत्मिक परिष्कार के साथ-साथ सामाजिक परिष्कार की दृष्टि से भी अत्यंत उपादेय है। वर्तमान में मानवीय मूल्यों के क्षरण की विषम परिस्थितियों में तो अत्यन्त प्रासंगिक भी है और आज ऐसे चिंतन को जन-जन तक पहुंचाना आवश्यक भी है। संदर्भ ग्रन्य १. जैन, हीरालाल, भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, भोपाल, १६६२ । २. दिनकर, रामधारीसिंह, संस्कृति के चार अध्याय, पटना, १६६० (पुनरावृत्ति)। ३. मुनि श्री प्रमाण सागर, जैन धर्म और दर्शन, दिल्ली, १६६६ | ४. आचार्य पुष्पदंत सागर, शब्दमये सयाने, इंदौर, १६६७ । ५. मुनि श्री प्रमाण सागर, पूर्वोक्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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